मेरे बारे में---Nirupama Sinha { M,A.{Psychology}B.Ed.,Very fond of writing and sharing my thoughts

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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

Ratan Tata and his quotes !

 OM SHANTHI 



Ratan Tata, one of India's most influential business leaders, has shared many inspiring quotes throughout his career. Here are some of his most notable ones:



- *On Decision Making*: "I don't believe in taking right decisions. I take decisions and then make them right." ¹

- *On Collaboration*: "If you want to walk fast, walk alone. But if you want to walk far, walk together." ¹ ²

- *On Personal Growth*: "None can destroy iron, but its own rust can! Likewise none can destroy a person, but its own mindset can!" ¹

- *On Resilience*: "Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an ECG means we are not alive." ¹ ²

- *On Success*: "Take the stones people throw at you and use them to build a monument." ¹ ²

- *On Ethics*: "Business needs to go beyond the interest of their companies to the communities they serve." ¹

- *On Leadership*: "I admire people who are very successful. But if that success has been achieved through too much ruthlessness, then I may admire that person, but I can't respect him." ¹

- *On Entrepreneurship*: "Young entrepreneurs will make a difference in the Indian ecosystem." ¹

- *On Innovation*: "I have been constantly telling people to encourage people, to question the unquestioned and not to be ashamed to bring up new ideas, new processes to get things done." ¹


These quotes showcase Ratan Tata's values, philosophy, and vision for business, leadership, and life.

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

Dharm & Darshan ! Mukti ka marg ! Rajendra ki kalam se !!

 गरुड़ पुराण के अनुसार मुक्ति के चार रास्ते हैं -

ब्रह्म ज्ञान, गया श्राद्ध, कुरुक्षेत्र निवास(गीता), और गौशाला में देहत्याग! 

इनमें से गया श्राद्ध को मोक्ष तीर्थ कहा गया है क्योंकि यहां मृत्यु पश्चात भी मोक्ष के लिए अनुष्ठान होते हैं।

ब्रह्मा जी ने सृष्टि के प्रारंभिक काल में त्रिपुरा असुर की भी सृष्टि की थी जो अनन्य विष्णु भक्त हुआ। विष्णु का एक नाम "गय" भी है अतः उसने अपने पुत्र का नाम रखा गया यानी गया असुर!वह भी विष्णु भक्त था।

असुरों को हेय दृष्टि से देखा जाता था अतः इस स्तर से मुक्ति के लिए उसने कोलाहाला (आधुनिक कश्मीर) के पहाड़ों पर स्वांस को रोक कर वर्षों तपस्या करता रहा। इसके इस तपस्या से इंद्र घबरा गये और देवताओं के संग विष्णु के पास गए और गयासुर के तपस्या को भंग करने की विनती करने लगे।

विष्णु ने उसके तपस्या को भंग करने के लिए उसे तत्काल वरदान देने का विचार किया।

गयासुर ने वरदान मांगा कि उसके शरीर को इतना पवित्र कर दिया जाय की,जो कोई भी उसे स्पर्श करें, देखें, उसे उसी क्षण मोक्ष मिल जाए। विष्णु ने यह वरदान उसे दे दिया।

इसके बाद गया सुर को देखने और स्पर्श करने वालों का तांता लग गया। यहां तक की अधर्मी और अत्याचारी भी आकर मोक्ष प्राप्त करने लगे।

इससे संसार की सारी व्यवस्था तहस-नहस होने लगी।तब ब्रह्मा विचार करके गया सुर के पास गए और बोले कि मैं सभी देवताओ के साथ एक यज्ञ करना चाहता हूं जिसके लिए हमें एक पवित्र स्थान चाहिए। तुम्हारे शरीर के अतिरिक्त मुझे लोक में कोई दुसरा स्थान नहीं दीख रहा है।

गया सुर ने इस हेतु अत्यंत खुशी से अपने शरीर का दान ब्रह्मा जी को कर दिया और उत्तर के तरफ सिर करके लेट गया।(आज भी मरणासन्न या मृत प्राणी को या चिता पर  शीघ्र मुक्ति के लिए उत्तर के तरफ सिर करके सुलाया जाता है)

देवताओं ने उसके शरीर पर यज्ञ आरम्भ कर दिया जो पन्द्रह दिनों तक चला। यज्ञ के दौरान कुंड के ताप से गया सुर का शरीर हिलने लगा तब विष्णु ने उसके शरीर को पैरों से दबा कर शांत किया इस पदचिन्ह पर आज श्राद्ध होते हैं! इसे ही विष्णु पद कहते हैं जिस पर मंदिर बना है। आधुनिक काल में जिसका जिर्णोद्धार महारानी अहिल्याबाई होलकर ने की।

देवताओं ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तब गया सुर ने मांगा कि आप सभी देव, त्रिदेवों के संग अनंत काल तक यही वास करें और जब भी जो कोई श्रद्धा भाव से यहां पूजन करें उसके पितरों के संग संग उसे भी मोक्ष की प्राप्ति हो! यह स्थान मेरे नाम से विख्यात हो।

आज भी गया तीर्थ में उसी पंद्रह दिनों में फल्गु नदी के तट पर अक्षयवट के नीचे विष्णु पद मंदिर में पितरों के मोक्ष के लिए 

लोग आते हैं जो पितृपक्ष मेला के नाम से विख्यात है।

Dharm & Darshan !! Sarv Pitri Amavasya !! Rajendra ki kalam se !!

 सर्वपितृ अमावस्या पर श्राद्ध क्यों करना चाहिए.?

हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है । 'श्राद्ध-विधि' इसी भावना पर आधारित है। 


पुराणों में आता है कि आश्विन (गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की अमावस (पितृमोक्ष अमावस) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है । सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है । इस दिन हमारे पितर यमलोक से अपना निवास छोड़कर सूक्ष्म रूप से मृत्युलोक (पृथ्वीलोक) में अपने वंशजों के निवास स्थान में रहते हैं । अतः उस दिन उनके लिए विभिन्न श्राद्ध करने से वे तृप्त होते हैं ।


गरुड़ पुराण में लिखा है कि "अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः अमावस्या के दिन प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु-बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया-तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्ही पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।


राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेयजी से प्रार्थना की : ‘‘भगवन् ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ।


मार्कण्डेयजी ने कहा : ‘‘राजन् ! इसी विषय में आनर्त-नरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछा था । तब भर्तृयज्ञ ने कहा था : ‘राजन् ! विद्वान पुरुष को अमावस्या  के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं । जो अमावस्या को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है।


आनर्त-नरेश बोले : ‘ब्रह्मन् ! मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं, फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं?


भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! जो लोग यहाँ मरते हैं उनमें से कितने ही इस लोक में जन्म लेते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का उपभोग करते हैं ।


राजन् ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख-प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं । जब तक वे मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह और पिता, पितामह या प्रपितामह पद पर रहते हैं, तब तक श्राद्धभाग लेने के लिए उनमें भूख-प्यास की अधिकता होती है ।


पितृलोक या देवलोक के पितर श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से श्राद्धीय ब्राह्मणों के शरीर में स्थित होकर श्राद्धभाग से तृप्त होते हैं, परंतु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग हेतु स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर लेते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है, वहाँ तदनुकूल भोगों की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुँचाते हैं ।


ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से शक्ति के अनुसार सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन करता है या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।


आनर्त-नरेश : ‘ब्रह्मन् ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं, फिर अमावस्या को ही विशेषरूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?


भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत-से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांतिकाल, व्यतीपात, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयों में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्य-तीर्थ, पुण्य-मंदिर, श्राद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्धयोग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को विशेषरूप से श्राद्ध करने का आदेश दिया गया है, इसका कारण है कि सूर्य की सहस्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ''अमा'' है । उस "अमा'' नामक प्रधान किरण के तेज से ही सूर्यदेव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी "अमा" में तिथि विशेष को चंद्रदेव  निवास  करते  हैं,  इसलिए  उसका  नाम अमावस्या है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बतायी गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।


श्राद्ध की महिमा बताते हुए ब्रह्माजी ने कहा है : ‘यदि मनुष्य पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह,  प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और माता से लेकर मुझ तक सभी पितर तृप्त हो जायेंगे ।


जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसीसे भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिंडदान भी देगा, उससे पितरों को सनातन तृप्ति प्राप्त होगी ।


पितृपक्ष में शाक के द्वारा भी जो पितरों का श्राद्ध नहीं करेगा, वह धनहीन चाण्डाल होगा । ऐसे व्यक्ति से जो बैठना, सोना, खाना, पीना, छूना-छुआना अथवा वार्तालाप आदि व्यवहार करेंगे, वे भी महापापी माने जाएंगे । उनके यहाँ संतान की वृद्धि नहीं होगी । किसी प्रकार भी उन्हें सुख और धन-धान्य की प्राप्ति नहीं होगी ।


यदि श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रुपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन पानी का लोटा भरकर रखें फिर भगवदगीता के सातवें अध्याय का पाठ करें और 1 माला द्वादश मंत्र "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" और एक माला "ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा" की करें और लोटे में भरे हुए पानी से सूर्यं भगवान को अर्घ्य दे फिर 11.36  से 12.24 के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें । चारा खरीदने का भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें : ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं । मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-करानेवाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है । इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं । इससे आपको मंगलमय लाभ हो!

Dharm & Darshan !! Jau ka mahtv ! Rajendra ki kalam se !!

 नवरात्रि के आरंभ में क्यों बोए जाते हैं जौ ? 


नवरात्र में कलश के सामने गेहूं और जौ को मिट्टी के पात्र में बोया जाता है और इसका पूजन भी किया जाता है। ह नवरात्र में जौ बोने की परंपरा सदियों पुरानी  है। 


भारतीय सनातन संस्कृति में पर्व और उनको मनाए जाने का विधान शास्त्रों में व्यवस्थित किया गया है। इसमें धार्मिक परंपराओं के साथ ही वैज्ञानिक रहस्य भी छुपे हुए हैं। इन्हीं रहस्यों में यह प्रश्न सामने आता है कि नवरात्र में जौ क्यों बोए जाते हैं? 

तैत्तिरीय उपनिषद में अन्न को ईश्वर कहा गया है -" अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्। "

वहां अन्न की निंदा व उसके तिरस्कार के लिए निषेध किया गया है-" अन्नं न निन्द्यात् तद् व्रतम्। "

ऋग्वेद में बहुत से अन्नों का वर्णन है, जिसमें यव अर्थात जौ की गणना भी हुई है। मीमांसा का एक श्लोक जौ की महत्ता बताता है कि वसंत ऋतु में सभी

फसलों के पत्ते झड़ने लगते हैं पर मद शक्ति से भरे हुए जौ के पौधे दानों से भरे कणिश (बालियां) के साथ खड़े रहते हैं। संस्कृत भाषा का यव शब्द ही जव उच्चरित होते हुए जौ बन गया। जौ धरती को उपजाऊ बनाने का सबसे अच्छा साधन या उदाहरण है।


सृष्टि का पहला अनाज जौ

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नवरात्र दो ऋतुओं के संधि काल का नाम है। चैत्रीय नवरात्र सर्दी व गर्मी तथा आश्विन नवरात्र गर्मी और सर्दी के संधिकाल हैं। दोनों ही संधिकाल में रबी व खरीफ की फसल तैयार होती है। इसी कारण भूमि की गुणवत्ता को जांचने के लिए जौ उगाकर देखा जाता है कि आने वाली फसल कैसी होगी? यदि सभी अनाजों को एक साथ भूमि में उगाया जाए तो सबसे पहले जौ ही पृथ्वी से बाहर निकलता है, तात्पर्य है कि सबसे पहले जौ ही अंकुरित होगा। 


क्यों बोए जाते हैं जौ ?

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पौराणिक मान्यताओं में जौ को अन्नपूर्णा का स्वरूप माना गया है।  ऋषियों को सभी धान्यों में जौ सर्वाधिक प्रिय है। इसी कारण ऋषि तर्पण जौ से किया जाता है। पुराणों में कथा है कि जब जगतपिता ब्रह्मा ने ब्रह्मांड का निर्माण किया, तो वनस्पतियों के बीच उगने वाली पहली फसल जौ ही थी। इसी से जौ को पूर्ण सस्य यानी पूरी फसल भी कहा जाता है। यही कारण है कि नवरात्र में भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए जौ उगाए जाते हैं। सम्मान में किसी को सस्य देना अर्थात नवधान्य देना शुभ व कल्याणकारी माना गया है। नवरात्र उपासना में जौ उगाने का शास्त्रीय विधान है, जिससे सुख, और समृद्धि प्राप्त होती है। जौ को देवकार्य, पितृकार्य व सामाजिक कार्यों में अच्छा माना जाता है। वैदिक काल में खाने के लिए बनने वाली यवागू (लापसी) से लेकर अभी की राबड़ी के निर्माण में जौ का प्रयोग ही पुष्टिकर व संपोषक माना गया है।


Dharm & Darshan !! Rajendra ki kalam se !! Kanya poojan !

 कन्या पूजन में कन्याओं का नवदुर्गा रूप..........

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सनातन धर्मग्रन्थों में कन्या-पूजन को नवरात्र-व्रत का अनिवार्य अंग बताया गया है। छोटी बालिकाओं में देवी दुर्गा का रूप देखने के कारण श्रद्धालु उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।

.ो वर्ष की कन्या को “कुमारी” कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।

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तीन वर्ष की कन्या “त्रिमूर्ति” मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।

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चार वर्ष की कन्या “कल्याणी” के नाम से संबोधित की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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पांच वर्ष की कन्या “रोहिणी” कही जाती है। रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है।

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छ: वर्ष की कन्या “कालिका” की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।

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सात वर्ष की कन्या “चण्डिका” के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।

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आठ वर्ष की कन्या “शाम्भवी” की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है।

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नौ वर्ष की कन्या "दुर्गा" की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं।

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दस वर्ष की कन्या “सुभद्रा” कही जाती है। सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं।

Dharm & Darshan ! Rajendra ki kalam se !! Mahishasur !

 महिषासुर कौन था?

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पृथ्वी के निर्माण के बाद, सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए ब्रह्मा ने अपने दाहिने अंगूठे से प्रजापति दक्ष का निर्माण किया।इसे जहां की जमीन दी गई वही आज अखंड कश्मीर है।

दक्ष का विवाह मनु की पुत्री -प्रसूति और वीरणी से कराया गया।

प्रसूति को 27 बेटियां(जो नक्षत्र कन्याओं -कृत्तिका, रोहणी, मृगशिरा,आद्रा आदि के नाम से विख्यात हुई)और वीरणी को 60 बेटियां हुईं।

27 नक्षत्र कन्याओं का विवाह चंद्रमा के संग और सती को छोड़ बाकी कन्याओं का विवाह ब्रह्मा के मानस पुत्र मुनि कश्यप के संग हुई। 

सती ने दक्ष के इच्छा के विरुद्ध महादेव का वरण किया था।

कश्यप मुनि और उनकी पत्नियों की ही संतान सृष्टि के सभी जीव हुए।देव,दानव ,नाग, किन्नर आदि।

दक्ष की एक पत्नी का नाम था दनु। इसी दनु सभी दानवों का जन्म हुआ।

दनु को दो पुत्र थे -रंभासुर और करंभ असुर!

रंभा सुर ने महिषी से प्रेम विवाह किया था। रंभा सुर और महिषी की ही संतान था महिषासुर!

महिषासुर ने ब्रह्मा का कठोर तप से रुप परिवर्तन और किसी से नहीं मरने का वर प्राप्त किया था।पर ब्रह्मा ने एक शर्त रखी थी अगर वो किसी स्त्री से युद्ध करेगा तो मारा जायेगा।

रंभा की हत्या उसके प्रतिद्वंद्वी ने सींगों से मार मारकर कर दी थी। रंभा का पुनर्जन्म रक्तबीज के रूप में हुआ।


गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

Pure Gold !!

 1. As long as you know who you are and what makes you happy,it doesn’t matter how others see you.

2.Good relations are like needles of clock,they only meet for sometimes but always stay connected.

3.Those who flow as life flows know they need no other force.

4.The basic function of EGO is HURT 

5. All problems can not be solved some has to be dissolved 

6. Find something every morning,that will put you in joyful state of mind

7.It always seems impossible until it’s done.

8. Life is full of uncertainties,but there will always be a sunrise,after every sunset.

9. What we are doing today, should be with harmony with where we want to be tomorrow.

10.Wake up every morning with the thought of something wonderful is to happen.

11.The people in your life should be a source of reducing stress not causing more of it.

12.For simple chemistry of life maintain your PH ( Peace and happiness)

13 Optimism is the faith that leads to achievement,nothing can be done without hope and confidence.

14 You have the power to protect your peace.

Ratan Tata and his quotes !

 OM SHANTHI  Ratan Tata, one of India's most influential business leaders, has shared many inspiring quotes throughout his career. Here ...

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