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शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

Dharm & Darshan !! BHAJAN !!

कुछ लेना न देना मगन रहना
पांच तत्व का बना पींजरा
जामे बोले है मेरी मैना
गहरी नदिया नाव पुरानी
खेवटिया के निकट रहना
कहे कबीर सुनो भाई साधो
गुरु चरणन सो लिपट रहना

सीताराम पदाम्बुजे मधुपवद यन्मांसं लीयते
सीताराम गुणावली निशिदिवा यज्जिह्या पीयते
सीताराम विचित्र रूप मनीषम यच्चक्षर्षाभूषणम्
सीताराम सुनाम धाम निरतं तं सद्गुरुम संभजे

यत्र तत्र रघुनाथ कीर्तनं तत्र तत्र करत मस्तकंजलिम
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्

उल्ल्ंघय सिन्धो सलिलं सलिलं
यः शोक वन्हि जानकात्मजाया
आदाय तेनैव ददाह लंका
नमामि तं प्रांजलि राज्येनेयम्
अर्थात ---जिन्होंने लीला सही समुद्र के जल को लांघा और सीताजी के शोक रूपी अग्नि को अपने साथ ले जाकर लंका को जला  दिया ऐसे महावीर हनुमान की मैं हाथ जोड़ कर वंदना करता हूँ

अंजनी गर्भ सम्भूतो वायु पुत्रो महाबलः
कुमारो ब्रम्हचारी च हनुमंताय नमो नमः

देह दृष्टया तू दासोह्म जीवद्रष्ट्या त्वदंशकः
आत्म दृष्टया त्वमेवाहमिति में निश्चिता मतिः

अनायास मरणं ,वीना दै नैनन जीवनम
देहिमे कृपया शम्भो,तव भक्ति निरन्तरं

धन में ऐसा गुण है कि उसके न मिलने पर भी चिंता रहती है और मिलने पर भी ---अमृत कुण्ड
स्वयं अपने जीवन का दर्शक बन जाना दुखों से छुटकारा पाना है
जीवन पेचीदा नहीं बल्कि हम पेचीदा हैं ,जीवन तो बहुत सादी चीज है और सदी चीज ही सही होती है
पुस्तकें वे प्रकाश स्तम्भ हैं जो समय के विशाल समुद्र में खड़े किये गए हैं ---विपिल
कौन कहता है ,सत्य की सदा जीत होती है ,सत्य यदि धारण न करें कवच ,विवेक ,प्रयत्न पुरुषार्थ का ,तो असत्य के हाथों उसकी मौत होती है
कौन कहता है ,चलते रहने से मंज़िल आ जाती है ,गलत दिशा में रखा प्रत्येक कदम हमें मंज़िल से दूर ले जाता है
कौन कहता है ,भक्ति से मनुष्य ऊँचा उठता है ,अंध भक्ति मनुष्य के बुद्धि को कैद कर उसे पशु बना देती है

ऐसे आदमी पर कभी विश्वास मत करो जो प्रशंसा के पल बाँध दे
भगवन से कुछ मत मांगो उन्हें स्वयं ध्यान है ,केवल उस पर भरोसा रखो कर्म करो फिर देखो वे कितनी कृपा करते हैं
मान चाहने वाले अपमान से डरते हैं ,मान का बोझ उतरते ही मन हल्का व निडर हो जाता है
बड़ा वही है जिसके विचार सुन्दर हैं और अपने को संसार में छोटा मान कर चलता है
कण कण में छवि गुरु की अंकित
किन्तु नहीं मैं लिख  पाता हूँ
सांसारिकता में मन डूबा
शांति नहीं जग में पाता हूँ
मन मलिन है दीन पतित हूँ
कैसे प्रभु मैं सम्मुख आँऊ
उर में क्या क्या भाव भरे हैं
कैसे प्रभु मैं तुम्हे बताऊँ
मैं हूँ पतित पतित पावन तुम
यह ही है बस एक सहारा
स्वार्थमय जग के नाते हैं
इस जग में अब कौन हमारा
दया सिंधु गुरु दया दान दो
मैं चरणो में पतित पड़ा हूँ
भक्ति नहीं साधन अभाव है
कर्महीन हूँ द्वार पड़ा हूँ
एक सहारा एक आसरा ,
लेकर आया गुरु तव द्वारे
जैसा भी तैसा तेरा,
मेरे हो गुरु तुम रखवारे ---गंगा प्रसाद रस्तोगी

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