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शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

Dharm & Darshan !! KAVITA !!

कुलं पवित्रं जानाजी कृतार्था
वसुंधरा भाग्यवती च धन्या
स्वर्गा स्थिता ये पितरो अपि धन्या
येषां कुले वैष्णव नाम धेयम्

हर विफलता पर न तुम आंसूं बहाओ
हर सफलता का यही पहला चरण है
हर कदम पर ही तुम्हे यदि यदि शूल मिलते
तो उन्हें भी प्यार कर दिल से लगा लो
यदि तुम्हारे स्वप्न भी घायल हुए हैं
तो उन्हें चुपचाप पलकों में छिपा लो
बाँध लो तुम नींद को भी मुट्ठियों में
मौत सोना है कि जीवन जागरण है
जो कभी चलता नहीं वह क्या गिरेगा
जो कभी गिरता वही उठ चलेगा
जो कि हंस हंस आँधियों से खेलता है
वह प्रलय में भी दिवाकर सा जलेगा
इसलिए चलते चलो ,गिर गिर सम्हल कर
रास्ते में पाँव रुक जाना मरण है

जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है
जो लूटा रहे हो वही केवल अपना है ---डॉ शिवमंगल सिंह सुमन "

मारना सच और जीना झूठ ---करतारसिंह दुग्गल
भोजन आधा पेट कर दुगना पानी पीउ
तिगुना श्रम चौगुन हंसी वर्ष सवासौ जीउ ---काका हाथरसी

जीवन यात्रा के पथ को आलोकित करने के लिए सबसे बड़ा दीपक है अंतर्विवेक जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने प्रकाश से हमें मार्ग दर्शन कराता है ---प्रो. हरिमोहन झा
निरंतर यात्रा ,बाहर भीतर ---कृष्ण नाथ
हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यह है की हमसब जहाँ रहते हैं वहां नहीं रहते., या तो हम व्यतीत को देखते हैं अथवा भविष्य के सूर्यचक्र को ,वर्तमान को यों काटते चलते हैं जैसे कि वह नितांत निरर्थक इकाई है और इस तरह एक सार्थक तत्व को निरर्थक स्वीकार कर हम अपनी पराजय के बीज बोते चलते हैं ---राजेन्द्र अवस्थी
धूप हो या चाँदनी अब हम थकी आँखों के साथ
ओढ़ कर चादर तेरे गम की कहीं सो जाएंगे ---मख़मूर सईदी

पर संताप दिए बिना ,बिनु खल मंदिर जोय
बिनु आत्मा संताप के अल्प अर्थ बहु होय ---प्रभुदत्त ब्रम्हचारी

कोई इतना पतित नहीं की उठ न सके
कोई इतना महान नहीं कि उसका पतन संभव न हो ---स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

हरिदेव जगत जगदेव हरि हरितो जगतो नहि भिन्न तनु
इति यस्य मतिः परमार्थ गतिः सः नरो भवसागर मुत्त रति

गुरुदेव आपके मंदिर में मैं तुम्हे मनाने आया हूँ
वाणी में तनिक मिठास नहीं ,पर विनय सुनाने आया हूँ
प्रभु का चरणामृत लेने को है पास मेरे कोई पात्र नहीं
आँखों के दोनों प्यालों में ,मैं भीख माँगने आया हूँ
तुमसे क्या लेकर भेंट करूँ गुरुदेव आपके चरणो में
मैं भिक्षुक हूँ तुम दाता हो यह सम्बन्ध बताने आया हूँ
सेवा की कोई वस्तु नहीं फिर भी मेरा साहस देखो
रो रो कर आसुओं का मैं ये हार चढाने आया हूँ

सबके लिए खुला है यह द्वार ही ऐसा है
कोई भी चला आए दरबार ही ऐसा है

गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है ,गढ़ गढ़ काढ़े खोट
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बा है चोट

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