“वृद्घों में छुपा बचपन “
जो आपको दिखते हैं बूढ़े से लाचार से ,
आँखों पर ऐनक चढ़ाए या हाथ में लाठी लिए
बीमार से
उन्हें कम न समझना
क्यूँकि
वे ही हैं तुम्हारी नैया की पतवार से
जीया है उन्होंने उछलता कूदता , गलियों में या स्कूल के मैदानों में भागता दौड़ता बचपन ,
वे हैं अपने जमाने के ख़ुशियों से लबरेज़ बड़े से बड़े
ताल से
वे जिये माता पिता के लिए ,भाई बहन के लिए ,
पति पुत्र और ससुराल के बीच , परिवार से ,
दम है आज भी आत्मविश्वास का उनमें ,
आज भी हल कर देते हैं चुटकियों में समस्या
अनुभव के संस्कार से
अपमान न करना कभी इनका
ये वो बेशक़ीमती हीरे हैं
खो गए तो नहीं मिलेंगे कभी संसार में !
कवियत्री : निरुपमा सिन्हा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें