नर्मदा
वो दिन आज भी आँखों के सामने रिमझिम सा बरस जाता है खुशियों की बूंदें चेहरे पर छींटता सा। मैंने अभी अभी मनोविज्ञान में एम ए बी एड की शिक्षा पूर्ण की थी और अब मैं प्रतीक्षारत थी किसी सरकारी प्रतियोगिता भर्ती परीक्षा की जिसे पास करके किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिका का पद प्राप्त कर सकूँ। अभी मेरे पास कोई कार्य ना था और मैं पूर्ण रूप से स्वतंत्र थी,तभी मेरी एक सहेली सांवली सलोनी नैंसी मसीह जो मुझसे एक वर्ष सीनियर थी,और एक वर्ष पूर्व ही अद्यपिका के रूप में नियुक्त हुई थी जो मुझसे एक वर्ष सीनियर थी,और एक वर्ष पूर्व ही अद्यपिका के रूप में नियुक्त हुई थी,का पत्र मुझे प्राप्त हुआ,वह नेमावर के शासकीय माध्यमिक कन्या विद्यालय में कार्यरत थी,वह चर्च के ओर्फनेज में ही पली बढ़ी और आज अपने पैरों पर खड़ी थी, {एक दुखदायी बात यह थी कि वह पैरों के अनुपातिक ना होने से जन्म से ही थोड़ा भटक कर चलती थी.} ।मैंने सहर्ष ही उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। बस स्टैंड पर वह स्वयं ही अगवानी करने आ गई और अपने घर ले गई आम तौर पर छोटे स्थानो में जैसे घर हुआ करते थे वैसा ही उसका किराये का वह मकान था ,बाहर छोटी सी बैठक,फिर एक बड़ा सा कमरा,जिसके किनारे पर नहाने का स्थान था,और पीछे बड़ा सा आँगन जिसमे घास उगी हुई थी ,कुछ दो चार पौधे भी लगा रखे थे नैन्सी ने ,और उसके तीन और लकड़ी के फट्टों की जो फेन्स बनी थी ,उसी कार्नर में टॉयलेट बना था।
उसे स्कूल के लिए निकलना था वो मुझे सब समझा कर चली गई. शाम को उसने सविस्तार बताया कि उसने एक वैवाहिक विज्ञापन का जवाब दिया था ,और उसका जवाब आ गया है,कल यानि इतवार को हमें खातेगांव जाना है ,उसे अकेले जाने में हिचकिचाहट हो रही थी अतः मुझे बुला लिया है।
अगले दिन हम सुबह ही बस से निकल पड़े. नियत समय पर हम चर्च के कैंपस में मिस्टर विलियम्स के घर पहुंचे, मिस्टर विलियम्स उस चर्च के प्रीस्ट थे और उन्ही के बेटे विक्टर के लिए शादी की बात थी। वो किसी कंपनी में बतौर इंजिनियर काम कर रहा था लम्बा गोरा और स्मार्ट था। एक व्यक्ति मध्यस्थ भी,उपस्थित थे जो नेमावर से खातेगांव ट्रांसफर हुई श्रीमती सलूजा के पति थे. चाय नाश्ता और औपचारिक वार्तालाप ललगभग आधे घंटे चला,मैं स्वभाव से काफी मुखर हूँ पर ज्यादातर चुप थी,आधे घंटे बाद विक्टर ने श्री सलूजा को अंदर चलने का इशारा किया,मैं और नैन्सी एक दूसरे की ओर देखते निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे।
बाहर केवल श्री सलूजा आये,और जो कुछ उन्होंने कहा उसने मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका दी,और नैंसी के ऊपर मानो गाज गिरा दी ,उन्होंने कहा ,”विक्टर कह रहा है उसे नैंसी के साथ आयी लड़की पसंद है”मैं और नैंसी कुछ बोलने की स्थिति में ना थे,मैं अकारण ही अपराध बोध से ग्रसित हो गई,हम दोनों ही वापसी के सफर में मौन रहे।
नैंसी जल्दी सोने चली गई और मैं देर तक सो ना सकी,शायद वो भी करवटें बदल रही थी। सुबह देर से आँख खुली,उसे हल्का बुखार था,मैंने उसे छुट्टी लेने का सुझाव दिया ,वो बोली “नहीं ,जाना ही होगा,एक तो स्कूल की चाभियाँ भी मेरे पास हैं ,और घर में क्या करूंगी “मुझे लगा वो ठीक कह रही है।मैंने उसे कहा मैं भी स्कूल तक चलती हूँ,मैंने स्कूल नहीं देखा था और नर्मदा मैया के दर्शन भी करने थे। घडी की सुइयां तेजी से भाग रही थीं स्कूल खुलने का समय हो गया था,मैंने उसके हाथ से चाभियाँ ले लीं,और पूछा स्कूल किधर है,उसने घर को ताला लगाते हुए समझाया,और मैंने कहा ,”मैं आगे चल कर चाभियाँ पहुंचाती हूँ,उसने स्वीकारात्मक रूप से गर्दन हिलाई,मैं दौड़ पडी,ये ढलान भरा रास्ता था,काफी दूर जाकर मैंने मुड़ कर देखा,नैंसी किसी युवक से ताला लगाते हुए समझाया,और मैंने कहा ,”मैं आगे चल कर चाभियाँ पहुंचाती हूँ,उसने स्वीकारात्मक रूप से गर्दन हिलाई,मैं दौड़ पडी,ये ढलान भरा रास्ता था,काफी दूर जाकर मैंने मुड़ कर देखा,नैंसी किसी युवक से बात कर रही थी। सामने नर्मदा की उत्ताल तरंगे दिखाई पड़ रहीं थी,पास में स्कूल भी दिखा,प्रधान अद्यपिका व कुछ लडकियां बाहर खड़ीं थीं,मैंने चाभियाँ थमाई तब तक नैंसी भी आ गई,उसने घर की चाभी मेरे हाथ पर रख दी,निःशब्द।मैंने कहा मैं कल सुबह की बस से इंदौर वापस लौट जाऊंगी,वो कुछ ना बोली स्कूल बिल्डिंग के अंदर चली गई. मैं वापस मुड़ी ,लेकिन घर ना जाकर नर्मदा के किनारे पहुंची,मेरा मन ना जाने कितने बड़े दुःख से भरा था,मैं किनारे पर बैठ कर आँसू बहती रही,मन ही मन बोली,”हे नर्मदा मैया ! निर्दोष होते ,जो अवांछित लांछन मुझ पर लग गया है उसे मिटा दो ” मैंने हृदय से नमस्कार किया और घर आ गई।
शाम को नैंसी घर आकर कुछ ना बोली और अंदर चली गई,तभी दरवाजे की कुण्डी खड़की,मैंने दरवाजा खोला तो एक सुदर्शन सा युवक नैंसी को पूछ रहा था। तब तक नैंसी बाहर आ गई उसकी अगवानी की और मुझसे परिचय करवाया ,” ये फिलिप है,मेरे बचपन का दोस्त,मेरे साथ ओर्फनेज में था,जल्दी ही काम पर लग गया और भोपाल चला गया,बहुत बरसों के बाद आया है ”
“लेकिन कोई दिन ऐसा ना गया जब तुम्हे याद ना किया हो “वो कुछ रुक कर झिझकता सा बोला,”मुझसे शादी करोगी नैंसी ?”ये शब्द नहीं थे जादू थे,मुझ पर और नैंसी पर उसका एक सा या अलग प्रभाव पड़ा पता नहीं,पर हम दोनों की आँखों से अविरल अश्रुधारा बाह रही थी,हम दोनों ने एक दूसरे के गले लगे बस रो रहे थे,फिलिप आश्चर्य चकित सा बस हम दोनों को देख रहा था।
वो दिन आज भी आँखों के सामने रिमझिम सा बरस जाता है खुशियों की बूंदें चेहरे पर छींटता सा। मैंने अभी अभी मनोविज्ञान में एम ए बी एड की शिक्षा पूर्ण की थी और अब मैं प्रतीक्षारत थी किसी सरकारी प्रतियोगिता भर्ती परीक्षा की जिसे पास करके किसी सरकारी स्कूल में अध्यापिका का पद प्राप्त कर सकूँ। अभी मेरे पास कोई कार्य ना था और मैं पूर्ण रूप से स्वतंत्र थी,तभी मेरी एक सहेली सांवली सलोनी नैंसी मसीह जो मुझसे एक वर्ष सीनियर थी,और एक वर्ष पूर्व ही अद्यपिका के रूप में नियुक्त हुई थी जो मुझसे एक वर्ष सीनियर थी,और एक वर्ष पूर्व ही अद्यपिका के रूप में नियुक्त हुई थी,का पत्र मुझे प्राप्त हुआ,वह नेमावर के शासकीय माध्यमिक कन्या विद्यालय में कार्यरत थी,वह चर्च के ओर्फनेज में ही पली बढ़ी और आज अपने पैरों पर खड़ी थी, {एक दुखदायी बात यह थी कि वह पैरों के अनुपातिक ना होने से जन्म से ही थोड़ा भटक कर चलती थी.} ।मैंने सहर्ष ही उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। बस स्टैंड पर वह स्वयं ही अगवानी करने आ गई और अपने घर ले गई आम तौर पर छोटे स्थानो में जैसे घर हुआ करते थे वैसा ही उसका किराये का वह मकान था ,बाहर छोटी सी बैठक,फिर एक बड़ा सा कमरा,जिसके किनारे पर नहाने का स्थान था,और पीछे बड़ा सा आँगन जिसमे घास उगी हुई थी ,कुछ दो चार पौधे भी लगा रखे थे नैन्सी ने ,और उसके तीन और लकड़ी के फट्टों की जो फेन्स बनी थी ,उसी कार्नर में टॉयलेट बना था।
उसे स्कूल के लिए निकलना था वो मुझे सब समझा कर चली गई. शाम को उसने सविस्तार बताया कि उसने एक वैवाहिक विज्ञापन का जवाब दिया था ,और उसका जवाब आ गया है,कल यानि इतवार को हमें खातेगांव जाना है ,उसे अकेले जाने में हिचकिचाहट हो रही थी अतः मुझे बुला लिया है।
अगले दिन हम सुबह ही बस से निकल पड़े. नियत समय पर हम चर्च के कैंपस में मिस्टर विलियम्स के घर पहुंचे, मिस्टर विलियम्स उस चर्च के प्रीस्ट थे और उन्ही के बेटे विक्टर के लिए शादी की बात थी। वो किसी कंपनी में बतौर इंजिनियर काम कर रहा था लम्बा गोरा और स्मार्ट था। एक व्यक्ति मध्यस्थ भी,उपस्थित थे जो नेमावर से खातेगांव ट्रांसफर हुई श्रीमती सलूजा के पति थे. चाय नाश्ता और औपचारिक वार्तालाप ललगभग आधे घंटे चला,मैं स्वभाव से काफी मुखर हूँ पर ज्यादातर चुप थी,आधे घंटे बाद विक्टर ने श्री सलूजा को अंदर चलने का इशारा किया,मैं और नैन्सी एक दूसरे की ओर देखते निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे।
बाहर केवल श्री सलूजा आये,और जो कुछ उन्होंने कहा उसने मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका दी,और नैंसी के ऊपर मानो गाज गिरा दी ,उन्होंने कहा ,”विक्टर कह रहा है उसे नैंसी के साथ आयी लड़की पसंद है”मैं और नैंसी कुछ बोलने की स्थिति में ना थे,मैं अकारण ही अपराध बोध से ग्रसित हो गई,हम दोनों ही वापसी के सफर में मौन रहे।
नैंसी जल्दी सोने चली गई और मैं देर तक सो ना सकी,शायद वो भी करवटें बदल रही थी। सुबह देर से आँख खुली,उसे हल्का बुखार था,मैंने उसे छुट्टी लेने का सुझाव दिया ,वो बोली “नहीं ,जाना ही होगा,एक तो स्कूल की चाभियाँ भी मेरे पास हैं ,और घर में क्या करूंगी “मुझे लगा वो ठीक कह रही है।मैंने उसे कहा मैं भी स्कूल तक चलती हूँ,मैंने स्कूल नहीं देखा था और नर्मदा मैया के दर्शन भी करने थे। घडी की सुइयां तेजी से भाग रही थीं स्कूल खुलने का समय हो गया था,मैंने उसके हाथ से चाभियाँ ले लीं,और पूछा स्कूल किधर है,उसने घर को ताला लगाते हुए समझाया,और मैंने कहा ,”मैं आगे चल कर चाभियाँ पहुंचाती हूँ,उसने स्वीकारात्मक रूप से गर्दन हिलाई,मैं दौड़ पडी,ये ढलान भरा रास्ता था,काफी दूर जाकर मैंने मुड़ कर देखा,नैंसी किसी युवक से ताला लगाते हुए समझाया,और मैंने कहा ,”मैं आगे चल कर चाभियाँ पहुंचाती हूँ,उसने स्वीकारात्मक रूप से गर्दन हिलाई,मैं दौड़ पडी,ये ढलान भरा रास्ता था,काफी दूर जाकर मैंने मुड़ कर देखा,नैंसी किसी युवक से बात कर रही थी। सामने नर्मदा की उत्ताल तरंगे दिखाई पड़ रहीं थी,पास में स्कूल भी दिखा,प्रधान अद्यपिका व कुछ लडकियां बाहर खड़ीं थीं,मैंने चाभियाँ थमाई तब तक नैंसी भी आ गई,उसने घर की चाभी मेरे हाथ पर रख दी,निःशब्द।मैंने कहा मैं कल सुबह की बस से इंदौर वापस लौट जाऊंगी,वो कुछ ना बोली स्कूल बिल्डिंग के अंदर चली गई. मैं वापस मुड़ी ,लेकिन घर ना जाकर नर्मदा के किनारे पहुंची,मेरा मन ना जाने कितने बड़े दुःख से भरा था,मैं किनारे पर बैठ कर आँसू बहती रही,मन ही मन बोली,”हे नर्मदा मैया ! निर्दोष होते ,जो अवांछित लांछन मुझ पर लग गया है उसे मिटा दो ” मैंने हृदय से नमस्कार किया और घर आ गई।
शाम को नैंसी घर आकर कुछ ना बोली और अंदर चली गई,तभी दरवाजे की कुण्डी खड़की,मैंने दरवाजा खोला तो एक सुदर्शन सा युवक नैंसी को पूछ रहा था। तब तक नैंसी बाहर आ गई उसकी अगवानी की और मुझसे परिचय करवाया ,” ये फिलिप है,मेरे बचपन का दोस्त,मेरे साथ ओर्फनेज में था,जल्दी ही काम पर लग गया और भोपाल चला गया,बहुत बरसों के बाद आया है ”
“लेकिन कोई दिन ऐसा ना गया जब तुम्हे याद ना किया हो “वो कुछ रुक कर झिझकता सा बोला,”मुझसे शादी करोगी नैंसी ?”ये शब्द नहीं थे जादू थे,मुझ पर और नैंसी पर उसका एक सा या अलग प्रभाव पड़ा पता नहीं,पर हम दोनों की आँखों से अविरल अश्रुधारा बाह रही थी,हम दोनों ने एक दूसरे के गले लगे बस रो रहे थे,फिलिप आश्चर्य चकित सा बस हम दोनों को देख रहा था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें