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शुक्रवार, 31 मार्च 2017

Daur-E-Waqt !!

दौर - ए -वक़्त ----

फुर्र से उड़ जाता है नील गगन में 
नादान मासूम सा बचपन ,
जाने कितनी नटखट शरारतें,
वो संगी वो साथी,वो नए नए खुद ईजाद किये खेल 
उछल कूद,धमा चौकड़ी,
कट्टी बट्टी ,रूठने मनाने की 
सुबह शाम की दैन्यदिनी 
अल्हड उद्दाम निर्बंध नदी सी युवावस्था 
महत्वाकांक्षाओं  का सुदूर तक फैला क्षितिज 
उसके बाद कोल्हू के बैल सा 
कर्तव्यों की घाणी  में गोल गोल घूमता 
वैवाहिक जीवन का चक्र 
और फिर आकर ठिठक ठहर जाने वाला बुढ़ापा 
साथ में ले आता है ,नए नए मेहमान 
तकलीफों बीमारियों के स्वाभाविक रूप से 
बनाए रखता है व्यस्त आपको 
उनसे निपटने निपटाने  में 
लेकिन कभी लौटता नहीं है 
वक़्त ,गुज़र जाने के बाद 
गल्तियां सुधारी नहीं जा सकतीं 
एक बार कीं जाने के बाद 
एक सुनहरा मार्ग सदैव होता है सामने 
गल्तियों से सबक लेने और 
खुद को पल पल सुधारने का !! 

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