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गुरुवार, 22 जून 2017

Maya Aur Kaya !!

माया और काया !!

नन्हे से बिंदु से आकारित होती है मानव काया ,
धीरे धीरे बढ़ती जाती निश्छल निष्पाप कोमल काया 
मोह बंध को सुगठित करती रिश्तों की मधुर माया 
किन्तु सबसे ही जटिल होती है धन संपत्ति की माया 
गहरी जड़ें मन मस्तिष्क में होतीं हर मानव के ये माया 
सारी दौड़ धूप इसीकी,उठापटक की यह माया 
सही गलत ,काली सफ़ेद ,रंगहीन होती माया,
सारे काम इसीसे होते ,इंजन सी होती है माया 
आत्मविश्वास से भरी हुई है देखो अपनी ये माया 
जिसके पास नहीं होती है,उसका नहीं है सरमाया 
हर दिल की बेचैनी भी हर दिल का सुकून भी माया 
भागा भागा फिरता मानव जहाँ दिखे इसकी छाया।
सबकुछ करता है मानव,केंद्रबिंदु होती काया 
सबल पुष्ट सौष्ठव से परिपूर्ण पुरुष बनाये स्वकाया
कोमल सुन्दर सौम्य सलोनी नारी की निर्मल काया 
उत्पादों की बाढ़ दिखे है,सुन्दर बनाने को काया 
किन्तु उम्र के बढ़ते बढ़ते ढलती जाती है काया 
कमज़ोरी ,कभी बीमारी,थकने लगती है काया,
यौवन में चमकती थी जो जगमग सी 
अब मलीन सी दिखने लगती है काया 
अब उत्साह उतरने लगता ,मोहभंग और कटती माया,
सूखी लकड़ी सी होती जाती है मानव की काया
फुर्र से उड़ जाती आत्मा छोड़ कर यह कृश काया 
बाँध न पाते हैं उसको तब रिश्ते ,नाते ,मोह माया !!  

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