*बालकवि बैरागी की एक कविता*
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युग बीते संवाद नहीं है ।
कब बोले कुछ याद नहीं है ।।
सपने सबके अलग अलग हैं ।
सपनों के अनुवाद नहीं हैं ।।
सूरज से पहले उठ जाना ।
मुर्गे का अपराध नहीं है ।।
जब से घर का चूल्हा बदला।
पहले जैसा स्वाद नहीं है ।।
अंधा सूरज अम्बर नापे।
तिल भर कहीं विवाद नहीं है ।।
सातों सुर खामोश पड़े हैं ।
कोई भी नौशाद नहीं है ।।
खुद की जो भी करे आरती।
मिलता उसे प्रसाद नहीं है ।।
दीवाली की हो गई होली ।
शेष बचा प्रहलाद नहीं है ।।
मिट्टी जिसका तन मन धन हो
उसे कहीं अवसाद नहीं है ।।
जाने को ही आये हम सब।
कोई भी अपवाद नहीं है ।।
तुम अनादि हो तुम अनंत हो ।
यह कोई उन्माद नहीं है ।।
कोई भी इस कोलाहल में ।
सुनता अनहदनाद नहीं है ।।
आज राम का स्वागत करने ।
शबरी और निषाद नहीं हैं ।।
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युग बीते संवाद नहीं है ।
कब बोले कुछ याद नहीं है ।।
सपने सबके अलग अलग हैं ।
सपनों के अनुवाद नहीं हैं ।।
सूरज से पहले उठ जाना ।
मुर्गे का अपराध नहीं है ।।
जब से घर का चूल्हा बदला।
पहले जैसा स्वाद नहीं है ।।
अंधा सूरज अम्बर नापे।
तिल भर कहीं विवाद नहीं है ।।
सातों सुर खामोश पड़े हैं ।
कोई भी नौशाद नहीं है ।।
खुद की जो भी करे आरती।
मिलता उसे प्रसाद नहीं है ।।
दीवाली की हो गई होली ।
शेष बचा प्रहलाद नहीं है ।।
मिट्टी जिसका तन मन धन हो
उसे कहीं अवसाद नहीं है ।।
जाने को ही आये हम सब।
कोई भी अपवाद नहीं है ।।
तुम अनादि हो तुम अनंत हो ।
यह कोई उन्माद नहीं है ।।
कोई भी इस कोलाहल में ।
सुनता अनहदनाद नहीं है ।।
आज राम का स्वागत करने ।
शबरी और निषाद नहीं हैं ।।
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