जन्नत
70 बरसों से वही कहानी वही फ़साना
जलती रही आग ,उगलता रहा आतंकवाद
मरते रहे बेगुनाह ,मरते रहे जवान
गाहे बगाहे ,फटते रहे बम,यहाँ वहां,बाज़ारों में
साँसें चूक गईं बच्चों की,उजड़ गए परिवार
कोशिशें होतीं रहीं अमन की,हमारी ओर से बरसों
लेकिन हुआ कुछ नहीं हांसिल,
इधर गले मिले वो ,उधर साज़िशें गला काटने की बनी
इधर दस्तखत समझौतों पे ,उधर कारगिल की रणभेरी
फिर नया ही देखने को मिला नज़ारा
स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बैग भरे थे पत्थरों से,
और घायल हो रहे थे देश के जवान
उन्हें छू भी नहीं सकते थे ,कि कानूनन वो थे अवाम
और अब तो खुले आम झंडे लहराए जा रहे हैं
तक़रीरें की जा रहीं हैं ,बगावती अंदाज़
और आग तो तब लग जाती है
जब सरकारी तौर पर शामिल होते हैं हमारे अफसर
,उनके जश्न में ? वाह रे वाह ! शाब्बास !
वो पत्थर मारें ,गोलियां मारे ,बम फोड़ें
और हम उनके टट्टे चाटते रहें बदस्तूर !!
70 बरसों से वही कहानी वही फ़साना
जलती रही आग ,उगलता रहा आतंकवाद
मरते रहे बेगुनाह ,मरते रहे जवान
गाहे बगाहे ,फटते रहे बम,यहाँ वहां,बाज़ारों में
साँसें चूक गईं बच्चों की,उजड़ गए परिवार
कोशिशें होतीं रहीं अमन की,हमारी ओर से बरसों
लेकिन हुआ कुछ नहीं हांसिल,
इधर गले मिले वो ,उधर साज़िशें गला काटने की बनी
इधर दस्तखत समझौतों पे ,उधर कारगिल की रणभेरी
फिर नया ही देखने को मिला नज़ारा
स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बैग भरे थे पत्थरों से,
और घायल हो रहे थे देश के जवान
उन्हें छू भी नहीं सकते थे ,कि कानूनन वो थे अवाम
और अब तो खुले आम झंडे लहराए जा रहे हैं
तक़रीरें की जा रहीं हैं ,बगावती अंदाज़
और आग तो तब लग जाती है
जब सरकारी तौर पर शामिल होते हैं हमारे अफसर
,उनके जश्न में ? वाह रे वाह ! शाब्बास !
वो पत्थर मारें ,गोलियां मारे ,बम फोड़ें
और हम उनके टट्टे चाटते रहें बदस्तूर !!
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