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मंगलवार, 20 मार्च 2018

Udgaar !!

समय चला, पर कैसे चला... 
            पता ही नहीं चला...

       जिन्दगी कैसे गुजरती गई...
            पता ही नहीं चला...

ज़िन्दगी की आपाधापी में,
कब निकली उम्र हमारी,
पता ही नहीं चला।

कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे,
कब कंधे तक आ गए,
पता ही नहीं चला।

किराये के घर से
शुरू हुआ सफर,
अपने घर तक आ गया,
पता ही नहीं चला।

साइकिल के
पैडल मारते हुए,
हांफते थे उस वक़्त,
अब तो
कारों में घूमने लगे हैं,
पता ही नहीं चला।

हरे भरे पेड़ों से
भरे हुए जंगल थे तब,
कब हुए कंक्रीट के,
पता ही नहीं चला।

कभी थे जिम्मेदारी
माँ बाप की हम,
कब बच्चों के लिए
हुए जिम्मेदार हम,
पता ही नहीं चला।

एक दौर था जब
दिन में भी बेखबर सो जाते थे,
कब रातों की उड़ गई नींद,
पता ही नहीं चला।

बनेंगे कब हम माँ बाप
सोचकर कटता नहीं था वक़्त,
कब हमारे बच्चे बच्चों वाले होने योग्य हो गए,
पता ही नहीं चला।

जिन काले घने
बालों पर इतराते थे हम,
कब रंगना शुरू कर दिया,
पता ही नहीं चला।

होली और दिवाली मिलते थे,
यार, दोस्तों और रिश्तेदारों से,
कब छीन ली प्यार भरी
मोहब्बत आज दे दौर ने,
पता ही नहीं चला।

दर दर भटके हैं,
नौकरी की खातिर ,
कब रिटायर होने का समय आ गया
पता ही नहीं चला।

बच्चों के लिए
कमाने, बचाने में
इतने मशगूल हुए हम,
कब बच्चे हमसे हुए दूर,
पता ही नहीं चला।

भरे पूरे परिवार से
सीना चौड़ा रखते थे हम,
कब परिवार हम दो पर सिमटा,
 पता ही नहीं चला !

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