सायकल पर यह शानदार आलेख है ...
1918 में सबसे पहले छावनी इलाके में साइकिल का शोरूम एन सी अंकलेसरिया एंड कंपनी ने शुरू किया था। जब 1930 में पारसी समुदाय के लोग पुणे और मुंबई जा रहे थे।उसी समय महाराजा यशवंत राव होलकर द्वितीय ने अंकलेसरिया एंड कंपनी को महारानी रोड पर एक प्लॉट उपलब्ध कराया था और कहा कि आप इंदौर में रुके। इस समय रेले तथा हंबर महंगी साइकिल होती थी। जिनकी कीमत 14 और ₹15 थी।और फिलिप्स और हरकुलिस बीएसए साइकिले 8 से ₹12 के बीच मिला करती थी। यह वह जमाना था जब घरों में साइकिल होना बहुत बड़ी बात समझी जाती थी।
अमूमन इंदौर शहर में सारे साइकिलो के शोरूम महारानी रोड पर ही थे। जिसमें न्यू स्टैंडर्ड साइकिल,एस के चोपड़ा एंड कंपनी, गुजरात साइकिल, कृष्णा साइकिल स्टोर आदि थे सन 50 से 60 के दशक के बीच में भारत में साइकिलो का उत्पादन शुरू हुआ जिसमें एटलस, हीरो, एवन आदि शामिल थे। शहर में सन 70 के दशक में दूध वितरण के लिए हेवी ड्यूटी की साइकिल बनाई जाती थी। जिसमें मोटी ताडियां है हेवी रिम आदि का प्रयोग किया जाता था।जिसकी कीमत 200 से ₹300 आती थी। गौरतलब है कि इंदौर शहर में हजारों हजारों की तादाद में मिल मजदूर थे। जो कि साइकिल का ही प्रयोग किया करते थे वही इंदौर म्युनिसिपलटी साइकिल पर टैक्स लिया करता थी भारी संख्या में श्रमिक इस टैक्स को देने में असमर्थ थे इसलिए इस टैक्स को हटाने के लिए श्रमिक नेता होमी दाजी ने आंदोलन कर सियागंज रेलवे फाटक पर रेल रोकी थी। जिसके कारण बाद में या टैक्स उठा लिया गया था।गौरतलब है कि इंदौर शहर के हर गली मोहल्ले में साइकिल किराए से मिलती थी। गर्मी की छुट्टियों में बच्चों के लिए छोटी साइकिल किराए पर उपलब्ध होती थी। जिसके पीछे मडगार्ड के ऊपर कटीली रोक लगाई जाती थी जिससे डबल सवारी ना कर सकें। सन 70 के दशक तक बड़ों की साइकिल 10 नए पैसे प्रति घंटा और बच्चों की साइकिल 5 नए पैसे प्रति घंटा इंदौर शहर में किराए से मिलती थी। वही बच्चे बड़ों की साइकिल से कैची विधि से साइकिल सीखा करते थे और डंडे पर साइकिल चलाना भी एक विधि थी।गौरतलब है कि शहर में 8 दिन तक गोल घेरा बनाकर लगातार साइकिले चलाकर रिकॉर्ड भी बनाए जाते थे। जिसके लिए विशेष तौर पर रंग-बिरंगी झालरों से सजाया जाता था और ग्रामोफोन रिकॉर्ड के साथ में हर सुबह और शाम रिंग के अंदर पानी का छिड़काव किया जाता था। साइकिल चलाने वाले को इनाम भी दिया जाता था सन 70 में यह शहर में चलन था। वही इंदौर शहर के विद्यार्थी कुछ विशेष कक्षाओं के लिए इंदौर से महू तथा उज्जैन सप्ताह में दो 3 बार पढ़ाई के लिए साइकिलो से जाया करते थे। सन 50 एवं 60 तक इंदौर शहर का नाम भारत के कुछ ही शहरों में सबसे ज्यादा साइकिलो का इस्तेमाल करने में था और इसकी वजह थी मिल मजदूरो, विद्यार्थी, एवं आम जनता का साइकिल का प्रयोग करना। गौरतलब है कि मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन अपने रंग और ब्रश लेकर साइकिल से पिपलियापाला जाया करते थे और घंटों लैंडस्कैपिंग पेंटिंग बनाया करते थे। वही रियासत के जमाने में एक विशेष प्रकार का लाइसेंस साइकिल टैक्सी के लिए दिया जाता था। याने साइकिल से बाहर से आने वाले लोगों को शहर के कई इलाकों में ले जाया जाता था इसके लिए होलकर रियासत में अलग-अलग रूट के लिए किराया मुकर्रर किया था। स्टेशन से राजवाड़े के 1 आना लगता था। शहर में साइकिल व्यवसाय ने हजारों हजारों लोगों को रोजगार प्रदान किया साइकिल व्यापारी से लेकर पंचर पकाने तक का मजदूर इस क्षेत्र से जुड़ा था वही हर गली मोहल्ले में साइकिल सर्विस सेंटर होते थे। जो भाड़े पर साइकिल दिया करते थे। साइकिल के मडगार्ड के पीछे साइकिल सर्विस का नंबर तथा नाम लिखा होता था।गौरतलब है कि रियासत के जमाने में स्कूल एवं कॉलेजों के विद्यार्थियों के लिए साइकिल रेस भी हुआ करती थी।
चित्र एवं जानकारी इतिहासकार जफर अंसारी के संग्रहालय से
महंगी साइकिल केवल सेठ साहूकार एवं धनवान व्यक्ति खरीद सकता था तथा इसमें उस जमाने में बीएससी की स्पोर्ट्स सात गियर्स तक की साइकिले उपलब्ध थी घर में साइकिल होना बहुत गर्व की बात थी। चित्र इंदौर शहर के एक स्टूडियो का है जिसमें शेरवानी और साफा पहन कर बड़े फक्र के साथ साइकिल को लेकर फोटो खींचवया गया है।
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