मणिपुर
अर्थात् मणि की भूमि ,
'देवताओं की रंगशाला'।
इसी भूमि पर
आदिगुरु सिदवा और देवी लैमारेन ने
लाईपुन्थों ( देवताओं )और सात लाइनूरा देवियों के साथ सात दिन-रात तक नृत्य किया था।
उस समय रंगभूमि को आलोकित करने के लिए
अनंत नाग मणि लेकर आया था ,
इसलिए यह भूमि मणिपुर कहलाई।
मणिपुर की प्रमुख भाषा 'मैतेई' है,
जिसे मणिपुरी भी कहा जाता है।
मैतेई भाषा की अपनी लिपि है— मीतेई-मएक।
इसके अतिरिक्त राज्य में २९ बोलियाँ हैं,
जिनमें प्रमुख हैं-
तड़ खुल, भार, पाइते, लुसाई, थडोऊ (कुकी), माओ आदि।
इन सभी भाषाओं की वाचिक परंपरा में
लोक साहित्य का विस्तृत भंडार है।
मणिपुर में
ऐमोल, अनल, अंगामी, चिरु, चोथे, गंगते, हमार, लुशोई, काबुई, कचानगा, खरम, कोईराव, कोईरंग, कोम, लम्कांग, माओ, मरम, मरिंग, मोनसंग, मायोन, पाईते, पौमई, पुनरुन, राल्ते, सहते, सेमा, तांगखुल, थडाऊ, तराव आदि आदिवासी समुदाय रहते हैं।
मैतेई समाज में सात वंशों में
येकसलाई (गोत्र) की परंपरा है।
महाभारत में
मणिपुर में
गंधर्ववंशी राजा चित्रवहन के शासन का उल्लेख है। चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा से अर्जुन का विवाह हुआ। चित्रांगदा से उत्पन्न अर्जुन पुत्र बभ्रु वाहन
मणिपुर का राजा बना।
जिसने युधिष्ठिर के अश्वमेध के घोड़े को मणिपुर में रोका। अर्जुन उसे छुड़ाने आए तो
पिता पुत्र के बीच युद्ध हुआ।
यशवंत सिंह ने
मणिपुरी लोक-कथाओं का अध्ययन किया है।
मणिपुर अपने आध्यात्मिक गीतों के लिए भी प्रसिद्ध है। आध्यात्मिक गीतों में
चैतन्य महाप्रभु के जीवन दर्शन का उल्लेख होता है।
डॉ० जगमल सिंह के अनुसार
मणिपुर में वैष्णव-धर्म का प्रचार है ,
हालाँकि कुछ अध्येता मानते हैं कि
यह असम का प्रभाव है।
मणिपुरी लोकनृत्य प्रसिद्ध है।
मणिपुर में रासलीला बहुत लोकप्रिय है।
चार प्रकार के रास हैं-
महारास, कुंजारास, वसंत रास और नित्य रास। दिबासरास गोपियों द्वारा साड़ी पहन कर किया जाता है।उदुखोल नृत्य कृष्ण की बाल लीला पर आधारित है ।
मणिपुर मेंडोल जात्रा का त्यौहार
फाल्गुन माह में मनाया जाता है।
इस अवसर पर
पाँच दिनों तक थाबलचोंगबा नृत्य किया जाता है।
लाई हराओबा सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा पर आधारित लोकनृत्य है ,
जो उमंगलाई (वन के देवी-देवता)की उपासना से संबंधित है।
तूनगन लम, हेग, नागा तूना, गन लम इत्यादि
आदिवासी समुदाय के नृत्य हैं।
बाँस चूड़ाचाँदपुर के लुशाई समुदाय का लोकनृत्य है।
इन आदिवासियों के प्रति जो इतने सरल-हृदय हैं ,
हमें देवभाव रखना चाहिये
किन्तु मनुष्यता का भाव भी लोप हो गया है ।
इन भोले लोगों के प्रति
राक्षसी -भाव ,आसुरीवृत्ति प्रत्यक्ष दिख रही है।
इसका अंत भी होना ही है।
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