क्या आप जानते हैं कि विश्वप्रसिद्ध #नालन्दा #विश्वविद्यालय को जलाने वाले जेहादी #बख्तियार_खिलजी की मौत कैसे हुई थी ???
असल में ये कहानी है सन 1206 ईसवी की...!
1206 ईसवी में कामरूप में एक जोशीली आवाज गूंजती है...
बख्तियार_खिलज़ी तू ज्ञान के मंदिर #नालंदा को जलाकर #कामरूप (असम) की धरती पर आया है... अगर तू और तेरा एक भी सिपाही #ब्रह्मपुत्र को पार कर सका तो मां चंडी (कामातेश्वरी) की सौगंध मैं जीते-जी अग्नि समाधि ले लूंगा"... #राजा_पृथु
और , उसके बाद 27 मार्च 1206 को असम की धरती पर एक ऐसी लड़ाई लड़ी गई जो मानव अस्मिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है.
एक ऐसी लड़ाई जिसमें किसी फौज़ के फौज़ी लड़ने आए तो 12 हज़ार हों और जिन्दा बचे सिर्फ 100....
जिन लोगों ने युद्धों के इतिहास को पढ़ा है वे जानते हैं कि जब कोई दो फौज़ लड़ती है तो कोई एक फौज़ या तो बीच में ही हार मान कर भाग जाती है या समर्पण करती है...
लेकिन, इस लड़ाई में 12 हज़ार सैनिक लड़े और बचे सिर्फ 100 वो भी घायल....
ऐसी मिसाल दुनिया भर के इतिहास में संभवतः कोई नहीं....
आज भी गुवाहाटी के पास वो शिलालेख मौजूद है जिस पर इस लड़ाई के बारे में लिखा है.
उस समय मुहम्मद बख्तियार खिलज़ी बिहार और बंगाल के कई राजाओं को जीतते हुए असम की तरफ बढ़ रहा था.
इस दौरान उसने नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया था और हजारों बौद्ध, जैन और हिन्दू विद्वानों का कत्ल कर दिया था.
नालंदा विवि में विश्व की अनमोल पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ, अभिलेख आदि जलकर खाक हो गये थे.
यह जे हादी खिलज़ी मूलतः अफगानिस्तान का रहने वाला था और मुहम्मद गोरी व कुतुबुद्दीन एबक का रिश्तेदार था.
बाद के दौर का अलाउद्दीन खिलज़ी भी उसी का रिश्तेदार था.
असल में वो जे हादी खिलज़ी, नालंदा को खाक में मिलाकर असम के रास्ते तिब्बत जाना चाहता था.
क्योंकि, तिब्बत उस समय... चीन, मंगोलिया, भारत, अरब व सुदूर पूर्व के देशों के बीच व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था तो खिलज़ी इस पर कब्जा जमाना चाहता था....
लेकिन, उसका रास्ता रोके खड़े थे असम के राजा पृथु... जिन्हें राजा बरथू भी कहा जाता था...
आधुनिक गुवाहाटी के पास दोनों के बीच युद्ध हुआ.
राजा पृथु ने सौगन्ध खाई कि किसी भी सूरत में वो खिलज़ी को ब्रह्मपुत्र नदी पार कर तिब्बत की और नहीं जाने देंगे...
उन्होने व उनके आदिवासी यौद्धाओं नें जहर बुझे तीरों, खुकरी, बरछी और छोटी लेकिन घातक तलवारों से खिलज़ी की सेना को बुरी तरह से काट दिया.
स्थिति से घबड़ाकर.... खिलज़ी अपने कई सैनिकों के साथ जंगल और पहाड़ों का फायदा उठा कर भागने लगा...!
लेकिन, असम वाले तो जन्मजात यौद्धा थे..
और, आज भी दुनिया में उनसे बचकर कोई नहीं भाग सकता....
उन्होने, उन भगोडों खिलज़ियों को अपने पतले लेकिन जहरीले तीरों से बींध डाला....
अन्त में खिलज़ी महज अपने 100 सैनिकों को बचाकर ज़मीन पर घुटनों के बल बैठकर क्षमा याचना करने लगा....
राजा पृथु ने तब उसके सैनिकों को अपने पास बंदी बना लिया और खिलज़ी को अकेले को जिन्दा छोड़ दिया उसे घोड़े पर लादा और कहा कि
"तू वापस अफगानिस्तान लौट जा...
और, रास्ते में जो भी मिले उसे कहना कि तूने नालंदा को जलाया था फ़िर तुझे राजा पृथु मिल गया...बस इतना ही कहना लोगों से...."
खिलज़ी रास्ते भर इतना बेइज्जत हुआ कि जब वो वापस अपने ठिकाने पंहुचा तो उसकी दास्ताँ सुनकर उसके ही भतीजे अली मर्दान ने ही उसका सर काट दिया....
लेकिन, कितनी दुखद बात है कि इस बख्तियार खिलज़ी के नाम पर बिहार में एक कस्बे का नाम बख्तियारपुर है और वहां रेलवे जंक्शन भी है.
जबकि, हमारे राजा पृथु के नाम के शिलालेख को भी ढूंढना पड़ता है.
लेकिन, जब अपने ही देश भारत का नाम भारत करने के लिए कोर्ट में याचिका लगानी पड़े तो समझा जा सकता है कि क्यों ऐसा होता होगा.....
ग्रीक सम्राट अलेक्जेंडर के नाम पर पुराने मिस्र में अलेक्जेंड्रिया नाम का एक शहर बसाया गया था. और अलेक्जेंडर का ही सपना था कि उसके शहर में एक पुस्तकालय बने.
उसके इस सपने को उसकी मृत्यु के बाद उसके विश्वासपात्र जनरलों की पीढ़ियों ने पूरा किया था. और अलेक्जेंड्रिया का गौरवशाली पुस्तकालय तैयार हुआ.
इस पुस्तकालय में संसार भर की हर संस्कृति के ग्रंथ और बही थे. संसार के हर कोने से विद्वानों को यहाँ आने और रहने सुविधा दी गई थी.
बस नियम एक ही था की जो लिखना है उसकी एक प्रति यहाँ जमा होगी. सोचिए कितनी अद्भुत व्यवस्था से यह ग्रंथालय तैयार हो रहा था.
और चूँकि अलेक्जेंड्रिया बड़ा बंदरगाह भी था. तो व्यापारियों को बंदरगाह के कर से मुक्तर कर दिया जाता यदि वे कोई उन्नत अथवा दुर्लभ ग्रंथ लेकर आते...
तीन सदी अर्थात् तीन सौ वर्षों तक सैकड़ों लोगों ने बाहर से आने वाली किताबों की प्रतिलिपियाँ लिखीं, क्योंकि तब तो प्रिटिंग अथवा कॉपी की व्यवस्था थी नहीं.
यहाँ विद्वानों को विशेष तौर पर लिखने के लिए, सोचने के लिए रखा जाता था. यहीं से पहली बार पुस्तकालय की परंपरा शुरू हुई जहाँ किताबों को कोडिंग से रखा गया.
और तब के समय के अनुसार ये पुस्तकें पेपायरस के स्क्राल अर्थात् भोजपत्रों की पोथी के रूप में में थीं. लेकिन संभवतः मानव इतिहास के भाग्य में यह अथाह ज्ञान नहीं था.
क्योंकि जब इस्लाम का जन्म हुआ और क्रूरता की शक्ति से इसका विस्तार हुआ और अलेक्जेंड्रिया जो आज के मिस्र में है उसे अधीन बना लिया गया.
अब इन अमूल्य ग्रंथों का क्या किया जाए? इस्लामी इतिहास में इस समय दूसरे खलीफा उमर का दौर था. और पुस्तकों से इस्लाम का बैर आज तक है ही.
तो खलीफा उमर ने इस्लाम की समझ के अनुसार यह कहते हुए सबको जलाने का आदेश दिया, “अगर इन किताबों में वही ज्ञान है जो कुरान में है तो हमें इनकी जरूरत नहीं है. और अगर इनमें कुरान से अलग कोई बात है तो हमें इनकी बिल्कुल जरूरत नहीं है.”
इस प्रकार से सात सौ वर्षों के कठोर परिश्रम और व्यवस्था से तैयार किए गए इस पुस्तकालय की सारी पोथियों को जलाकर पानी गर्म किया गया.
जी हाँ पूरी अलेक्जेंड्रिया की लाइब्रेरी के समस्त ज्ञान के स्रोत को जलाकर पानी उबाला गया. मानव इतिहास का वह लेख मिट गया जिससे हम कुछ समझ सकते थे.
बताया जाता है दस वर्षं तक निरंतर धुँआ उठता रहा. अर्थात् दस साल तक वह सारा प्राचीन ज्ञान जलता रहा. इसी विचार धारा के अन्तर्गत नालंदा भी महीनों जला !!
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