पितर और देवता अपना भाग कैसे ग्रहण करते है ?
नारदजी कहते हैं :– अर्जुन! राजा करन्धमने महाकालसे पूछा :-भगवन! मेरे मनमें सदा ये संशय रहता है कि मनुष्यों द्वारा पितरोंका जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उससे तृप्त कैसे होते हैं? इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है। अतः हम यह कैसे कह सकते हैं कि यह पितर आदि के उपभोगमें आता है? महाकालने कहा :– राजन! पितरों और देवताओंकी योनि ही ऐसी होती है कि वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुतिसे भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं। पाँच तन्मात्राएँ (पृथ्वी, जल, वायु अग्नि और आकाश इन पाँच तत्वोंका और .... से बना हमलोगोका शरीर है, पितर और देवताओंका शरीर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और ....से बना है ) , मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति, इन नौ तत्वोंका बना हुआ उनका शरीर होता है। इसके भीतर दसवें तत्वके रूपमें साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्वसे तृप्त होते हैं। शब्द तत्वसे रहते हैं तथा स्पर्श तत्वको ग्रहण करते हैं और किसीको पवित्र देख कर उनके मनमें बड़ा संतोष होता है। जैसे पशुओंका भोजन तृण और मनुष्योंका भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देव योनियोंका भोजन अन्नका सार-तत्व है। सम्पूर्ण देवताओंकी शक्तियाँ अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं। अतः वे अन्न और जलका सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है। करन्धमने पूछा :– श्राद्धका अन्न तो पितरोंको दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्मके अधीन होते हैं। यदि वे स्वर्ग अथवा नर्कमें हों, तो श्राद्धका उपभोग कैसे कर सकते हैं? और वैसी दशामें वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ? महाकालने कहा :– नृपश्रेष्ठ! यह सत्य है कि पितर अपने-अपने कर्मोंके अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदिके तीन अमूर्त तथा चार वर्णोंके चार मूर्त; ये सात प्रकारके पितर माने गए हैं। ये नित्य पितर हैं, ये कर्मोंके अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देनेमें समर्थ हैं। वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं। उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। राजन! इस लोकमें किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरोंको तृप्त करता है। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ताके पूर्वजोंको जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरोंके पास श्राद्धमें दी हुई वस्तु पहुँचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं। राजाने पूछा :– विप्रवर! जैसे भूत आदि को उन्हींके नामसे “इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेपमें क्यों नहीं दिया जाता है? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है? महाकालने कहा :– राजन! सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए। उचित प्रतिष्ठाके बिना दी हुई कोई वस्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते। घरके दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है? इसी प्रकार भूत आदि की भाँति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते। वे पवित्र भोगोंका सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं। अतः अश्रद्धालु पुरुषके द्वारा बिना मन्त्रके दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते।
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