आज ऋषि तर्पण है। जो प्रत्येक वर्ष भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की पुर्णिमा तिथि को पड़ता है। ये तिथि सप्त ऋषि मे से एक शिव के अनन्य भक्त का प्रादूर्भाव दिवस है। महर्षि अगस्त्य ऋषि की कृति हमारे सनातनी परंपरा अतुलनीय है। कहा जाता है कि एक बार ऋषिवर समुद्र में आचमन कर रहे थे। छलना का तभी दो दैत्य आतापी और वातापी अपना आकार छोटा करके उनके मुख के माध्यम से पेट मे प्रवेश कर गया और अपना आकार मे वृद्धि करने लगा। जब ऋषि वर को इस बात का आभास हुआ तो ऋषि वर ने अपने बाएं हाथ से अपने पेट को मलना शुरू किया और दाहिने हाथ से समुद्र को पीना । जब संपूर्ण समुद्र का जल पी लिए तो ये देखकर कि पृथिवी जल विहीन हो जायेगा और सृष्टि का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा तो ब्रह्मा, विष्णु एवम अन्य देवगण चिंतित हो गए और ब्रह्मा जी ऋषि के समक्ष प्रस्तुत हो कर कहे कि सृष्टि कल्याणार्थ समुद्र के जल को छोड़ दीजिए और आप एक वरदान मांग लीजिए ये सुनकर ऋषि वर ने तत्काल अपने सांस को रोककर उन दोनों दैत्यों को पेट के अंदर ही समाप्त कर अपने गुदा मार्ग द्वारा बाहर निकाल दिया । तत्पश्चात जल को पुनः धरती पर छोड़ दिए और ब्रह्मा जी वरदान मांगे की प्रत्येक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न मुझे नियत तिथि मे मेरे निमित तर्पण करेगा चुकि ऋषि वर को कोई पुत्र नहीं था। उसी दिन ब्रह्मा जी वरदान के अनुकूल हमलोगों के पूर्ववज आज के तिथि को ऋषि तर्पण करते आ रहे हैं और उन्हें के अनुसरण कर हमलोग भी ऋषि तर्पण करते है । नीचे दिए गए निम्नलिखित अगस्त्य प्रार्थना मंत्र से भी ऋषि वर की कृति स्पष्ट होती है।
ॐ आतापी भक्षितो येन वातापी च महाबलः।
समुद्रौः शोषितो येन स मे अगस्त्यः प्रसीदतु।।
वर्ष के 365 दिनों में से
15 दिन उन ( पितृ पक्ष ) ऊर्जाओं के लिए क्यों दिए गए, इस विज्ञान को समझना आवश्यक है।
ये 15 दिन अत्यंत पवित्र दिन होते हैं
लेकिन लोक में
इन्हें एक अजीब भाव मे देखने की प्रवृत्ति आ गयी है। ऐसा पूर्व में नही था,
क्योंकि अपने पूर्वजों के लिए निर्धारित इन दिनों में
पहले लोक इसे उसी भाव मे देखता था।
बीच की पराधीन जीवन शैली और अवैज्ञानिक शिक्षा ने इसको समझे बिना
ढकोसला या कर्मकांड बताना शुरू कर दिया ।
अब आप समझिए कि
जो हमारा शरीर है
वह हमारी मृत्यु के बाद भी बचा रह जाता है।
इस शरीर का निर्माण जिन पांच तत्वों से हुआ है,
जिनके बारे में आधुनिक विज्ञान भी अब मान चुका है,
वे पांच तत्व कैसे अपने मूल तत्वों में मिलें,
इसके लिए हमारी संस्कृति में
दहन की व्यवस्था की गई है।
जब प्राणहीन शरीर का दाह किया जाता है तो
पृथ्वी तत्व पृथ्वी में,
अग्नि तत्व अग्नि में,
वायु तत्व वायु में मिल जाता है।
जब पुष्प यानी अस्थि विसर्जन करते हैं तो
जल तत्व जल में मिल जाता है ।
आकाश तत्व पहले ही निकल चुका होता है।
लेकिन यह आकाश तत्व 13 दिंनो तक
अपने अन्य अवयवों के समीप ही रहता है।
एक एक अवयव को अपनी प्रकृति में मिलने में
कुल 13 दिन लग जाते है।
प्राणतत्व के 13 दिनों के स्वरूप को प्रेत कहा जाता है ।
यहां यह भी समझने की अवाश्यकता है कि
प्रेत कोई नकारात्मक शब्द नही है
बल्कि यह आत्मतत्व की यात्रा का एक सूक्ष्म प्रकार है
जो मृत्यु को प्राप्त शरीर के श्राद्ध तक रहता है। विधिपूर्वक श्राद्ध के बाद ही वह पितर बनता है।
श्राद्ध के अंतिम दिन
जब उसे पिंड के साथ गति दी जाती है
और अपने पूर्व की
तीन पीढ़ियों के पिंड में मिश्रित किया जाता है
तब उस परम प्राण तत्व की यात्रा शुरू होती है
जो उसके अपने
निजी अर्जित पुण्य,
पाप के अधार पर योनिगत करती है।
पुत्र द्वारा समुचित श्रद्धा अर्पण
यानी श्राद्ध के बाद ही यह यात्रा आगे बढ़ती है।
चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाता है।
पिंडदान कराते समय पंडित लोग
केवल तीन ही पितरों को याद करवाते हैं।
वास्तव में सात पितरों को स्मरण करना चाहिए।
हर चीज सात हैं।
सात ही रस हैं,
सात ही धातुएं हैं,
सूर्य की किरणें भी सात हैं।
इसीलिए सात जन्मों की बात कही गई है।
पितर भी सात हैं।
सही मात्रा 56 होती हैं।
कैसे?
इसे समझें।
व्यक्ति,
उसका पिता,
पितामह,
प्रपितामह,
वृद्ध पितामह,
अतिवृद्ध पितामह
और सबसे बड़े वृद्धातिवृद्ध पितामह,
ये सात पीढियां होती हैं।
इनमें से वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश,
अतिवृद्ध पितामह का तीन अंश,
वृद्ध पितामह का छह अंश,
प्रपितामह का दस अंश,
पितामह का पंद्रह अंश
और पिता का इक्कीस अंश व्यक्ति को मिलता है।
इसमें
उसका स्वयं का अर्जित 28 अंश मिला दिया जाए तो
56 सही मात्रा हो जाती है।
जैसे ही हमें पुत्र होता है,
वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश उसे चला जाता है
और उनकी मुक्ति हो जाती है।
इससे अतिवृद्ध पितामह
अब वृद्धातिवृद्ध पितामह हो जाएगा।
पुत्र के पैदा होते ही
सातवें पीढ़ी का एक व्यक्ति मुक्त हो गया।
इसीलिए सात पीढिय़ों के संबंधों की बात होती है।
यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि
पुत्र का अर्थ केवल संतति नही है।
शास्त्रों में पुत्र को बहुत स्पष्ट परिभाषित किया गया है-
पुम्नाम्न: नरकात् त्रायते इति पुत्र:।
पुत्र वही है जो
अपने पितर के लिए समुचित श्रद्धा का निर्वहन करता है, यह उस शरीर की निजी संतति भी हो सकती है
या पुत्रवत कोई अन्य भी।
पुत्र शब्द को हमने रूढ़ि में संतान के जोड़ कर ही देखा है जबकि इस शब्द का केवल संतान से कोई संबंध नही है। पुत्र सिर्फ वह है
जो पूर्वज की श्रद्धा विधि करे।
उदाहरण के लिए भगवान श्रीराम को
दशरथ जी का पुत्र इसलिए कहा गया क्योंकि
उन्होंने पुत्रधर्म का निर्वाह किया।
जो संतति पुत्र धर्म का निर्वाह नही करती
वह संतान होती है लेकिन पुत्र नही।
पुत्र की शास्त्रीय परिभाषा बहुत स्पष्ट है
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