छठ, बिहार, कार्त्तिकेय
(१) यह सूर्य पूजा का पर्व है। सूर्य क्षेत्र पूरे विश्व में हैं, किन्तु छठ पूजा केवल बिहार में ही प्रचलित है।
भारत में ओड़िशा का कोणार्क, गुजरात का मोढेरा, उत्तर प्रदेश का थानेश्वर (स्थाण्वीश्वर), वर्तमान पाकिस्तान का मुल्तान (मूलस्थान)।
सूर्य पूजा के वैदिक मन्त्र में उनको कश्यप गोत्रीय, कलिङ्ग देशोद्भव कहते हैं। विश्व का दृश्य रूप या ब्रह्माण्ड को कश्यप (पश्यक का विपरीत) कहते हैं, जिससे सूर्य का जन्म हुआ है। पर कलिङ्ग में अभी कोई सूर्य पूजा नहीं हो रही है।
जापान, मिस्र, पेरु के इंका राजा सूर्य वंशी थे। इंका प्रभाव से सूर्य को भारतीय ज्योतिष में इनः कहा गया है।
सोवियत रूस में अर्काइम प्राचीन सूर्य पीठ है जिसकी खोज १९८७ में हुई (अर्क = सूर्य)। पण्डित मधुसूदन ओझा ने १९३० पें प्रकाशित अपने ग्रन्थ इन्द्रविजय में इसके स्थान की प्रायः सटीक भविष्यवाणी की थी।
लखनऊ की मधुरी पत्रिका के १९३१ में पण्डित चन्द्रशेखर उपाध्याय के लेख ’रूसी भाषा और भारत’ में प्रायः ३००० रूसी शब्दों की सूची थी जिनका अर्थ वहां आज भी वही है, जो वेद में होता था। उसमें एक टिप्पणी थी कि रूस में भी सूर्य पूजा के लिए ठेकुआ बनता था।
एशिया-यूरोप सीमा पर हेलेसपौण्ट भी सूर्य पूजा का केन्द्र था। (ग्रीक में हेलिओस = सूर्य)।
प्राचीन विश्व के समय क्षेत्र उज्जैन से ६-६ अंश अन्तर पर थे, जिनकी सीमाओं पर आज भी प्रायः ३० स्थान वर्तमान हैं, जहां पिरामिड आदि बने हैं।
(२) बिहार में छठ द्वारा सूर्य पूजा के अनुमानित कारण-
भारत और विश्व में सूर्य के कई क्षेत्र हैं, जो आज भी उन नामों से उपलब्ध हैं। पर बिहार में ही छठ पूजा होने के कुछ कारण हैं।
मुंगेर-भागलपुर राजधानी में स्थित कर्ण सूर्य पूजक थे।
एक अन्य कथा है कि
गया जिले के देव में सूर्य मन्दिर है। महाराष्ट्र के देवगिरि की तरह यहां के देव का नाम भी औरंगाबाद हो गया। मूल नामों से इतिहास समझने में सुविधा होती है। गया का एक और महत्त्व है कि यह प्राचीन काल में कर्क रेखा पर था जो सूर्य गति की उत्तर सीमा है। अतः यहां सौर मण्डल को पार करनेवाले आत्मा अंश के लिए गया श्राद्ध होता है। सौर मण्डल को पार करने वाले प्राण को गय कहते हैं (हिन्दी में कहते हैं चला गया)।
स यत् आह गयः असि-इति सोमं या एतत् आह, एष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वान् लोकान् गच्छति-तस्मात् गयस्य गयत्वम् (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, ५/१४)
प्राणा वै गयः (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१५/७, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१४/४)
अतः गया और देव-दोनों प्रत्यक्ष देव सूर्य के मुख्य स्थान हैं।
बिहार के पटना, मुंगेर तथा भागलपुर के नदी पत्तनों से समुद्री जहाज जाते थे। पटना नाम का मूल पत्तन है, जिसका अर्थ बन्दरगाह है, जैसे गुजरात का प्रभास-पत्तन या पाटण, आन्ध्र प्रदेश का विशाखा-पत्तनम्। उसके पूर्व व्रत उपवास द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है जिससे समुद्री यात्रा में बीमार नहीं हों।
ओड़िशा में कार्त्तिक-पूर्णिमा को बइत-बन्धान (वहित्र - नाव, जलयान) का उत्सव होता है जिसमें पारादीप पत्तन से अनुष्ठान रूप में जहाज चलते हैं। यहां भी कार्त्तिक मास में सादा भोजन करने की परम्परा है, कई व्यक्ति दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। उसके बाद समुद्र यात्रा के योग्य होते हैं।
समुद्री यात्रा से पहले घाट तक सामान पहुंचाया जाता है। उसे ढोने के लिए बहंगी (वहन का अंग) कहते हैं। ओड़िशा में भी बहंगा बाजार है। बिहार के पत्तन समुद्र से थोड़ा दूर हैं, अतः वहां कार्त्तिक पूर्णिमा से ९ दिन पूर्व छठ होता है।
(३) षष्ठी देवी-श्रीमद्देवीभागवत पुराण, स्कन्ध ९, अध्याय ३८-
प्रतिमासं शुक्लपक्ष्यां षष्ठीं मङ्गलदायिनीम्। (८४) राधारासे च कार्त्तिक्यां कृष्णप्राणाधिकप्रियाम्। (८५)
= प्रतिमास शुक्लपक्ष षष्ठी को मङ्गलदायिनी की पूजा होती है। कार्त्तिक में कृष्ण की प्राणों से अधिक प्रिया राधा की पूजा होती है।
सवितुश्चाधिदेवी या मन्त्राधिष्ठातृ देवता। सावित्री ह्यपि वेदानां सावित्री तेन कीर्तिता॥९५॥
सविता (प्रसव या उत्पन्न करने वाला सूर्य, उसे जन्म देनेवाले का भी स्रोत तत्-सविता = परब्रह्म) की अधिदेवी या मन्त्र की अधिष्ठात्री देवी होने से वेद में भी इसे सावित्री कहा गया है।
अध्याय ४६-षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा षष्ठी प्रकीर्तिता। बालकानामधिष्ठात्री विष्णुमाया च बालदा॥४॥
= प्रकृति के षष्ठ अंश होने से इसे षष्ठी कहते हैं। यह बालकों की अधिष्ठात्री, विष्णु की माया तथा बालकों को देने वाली है।
मातृकासु च विख्याता देवसेनाभिधा च या। प्राणाधिकप्रिया साध्वी स्कन्दभार्या च सुव्रता॥५॥
= यह मातृकाओं में विख्यात है (विश्व को जन्म देने वाली या शब्द रूप विश्व को उत्पन्न करने वाले वर्ण) है तथा देवसेना नाम है। यह स्कन्द की प्राणप्रिया, साध्वी सुव्रता है।
आयुःप्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी। सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धयोगिनी॥६॥
= बालकों को आयु देनेवाली, उनकी धात्री तथा रक्षा करने वाली है। यह सदा शिशु के निकट रहती है तथा योग द्वारा सिद्धयोगिनी है।
षष्ठ्या देव्याश्च यत्नेन कारयामास सर्वतः। बालानां सूतिकागारे षष्ठाहे यत्नपूर्वकम्॥४६॥
तत् पूजां कारयामास चैकविंशतिवासरे। बालानां शुभकार्ये च शुभान्नप्रासने तथा॥४७॥
= बालकों के कल्याण के लिये सर्वदा षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। सूतिकागार में छठे दिन पूजा होती है (छठी)। २१वें दिन भी बालकों के शुभ के लिये पूजा होती है (ओड़िशा में एकोइसा) तथा अन्न-प्राशन के समय भी।
(४) गायत्री-गायत्री मन्त्र से भी सूर्य उपासना होती है। प्रथम पाद में सविता का अर्थ सूर्य किया जाता है। सव का अर्थ उत्पन्न करना है, प्रसव का अर्थ माता द्वारा सन्तान का जन्म। सू प्रेरणे (धातुपाठ, ६/११७), सूङ् प्राणि गर्भ विमोचने (धातु पाठ, २/२४, ४/२२), शूष प्रसवे (धातुपाठ, १/४५६)-इसके मूल धातु हैं। छोटे बच्चों को मूत्र त्याग की प्रेरणा देने के लिए भी मातायें ’शू’ करती है, उससे त्याग होना ’शूशू’ है-धातुओं का ध्वन्यात्मक मूल। पृथ्वी पर जीवन सूर्य की ऊर्जा से चल रहा है, अतः वह विश्व की आत्मा है-सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च (ऋक्, १/११५/१, अथर्व, १३/२/३५, २०/१०७/१४, वाज. यजु, ७/४२, १३/४६ आदि)। अतः पृथ्वी के लिए सूर्य सविता है। इसमें यत् (यह) और तत् (वह) का भेद है। पृथ्वी के लिए यह सविता सूर्य है, जिसे पिता कह सकते हैं। सूर्य का पिता ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) पितामह है, ब्रह्माण्ड का पिता स्वयम्भू मण्डल प्रपितामह है, तथा उसका भी जन्मदाता अव्यक्त ब्रह्म ’तत् सविता’ है।
सूर्य की शक्ति का प्रसार क्षेत्र सूर्या है, जन्मदात्री गर्भ रूप में सूया है-
सूर्यायाः पश्य रूपाणि (ऋक्, १०/८५/३५, अथर्व, १४/१/२८)
सूयवसाद् भगवती (ऋक्, १/१६४/४०, अथर्व, ७/७३/१५, ९/१०/२०, ऐतरेय ब्राह्मण, १/२२/१३, ५/२७/६, ७/३/३, काण्व सं, २६/६/२३ आदि)
सूयवसिनी मनवे (ऋक्, ७/९९/३, वाज. यजु, ५/१६, तैत्तिरीय सं, १/२/१३/२, काण्व सं, २/१०, शतपथ ब्राह्मण, ३/५/३/१४ आदि)
सूर्या क्षेत्र के चमकीले ग्रह शुक्र को सूर्य पुत्री भी कहा गया है। कान्ति अर्थ में उसे वेनः (वेनस) भी कहा गया है (ऋक्, १०/१२३/१, वाज, यजु, ७/१६ आदि)।
अव्यक्त सविता का ज्ञान तब होता है जब वह भर्ग हो या जिससे प्रकाश निकले, यह सूर्य प्रत्यक्ष विष्णु है-पृथिवी त्वया धृता लोका, देवि त्वं विष्णुना धृता (भूमि पूजन मन्त्र)।
सूर्य किरण से भीतर प्राण सञ्चार गायत्री का तृतीय पाद है। अव्यक्त अदृश्य पाद परोरजा है। शरीर के भीतर सूर्य क्षेत्र नाभि स्थान का मणिपूर चक्र है, निर्जल उपवास से यह उत्तेजित हो कर शरीर की ऊर्जा को सक्रिय करता है। अतः छठ या अन्य प्रकार से सूर्य पूजा को आरोग्यकारक कहा गया है (सूर्यतापिनी उपनिषद् आदि)।
(५) कार्त्तिकेय तथा षष्ठी-कार्त्तिकेय को ६ मुख वाला (षण्मुख, तमिल में अरुमुगम्), ६ माता वाला कहा गया है (षाण्मातुरः)। इसके कई अर्थ कहे गये हैं। कार्त्तिकेय का कृत्तिका नक्षत्र में जन्म हुआ, अतः कार्त्तिकेय नाम है। कृत्तिका के देवता अग्नि हैं, इस अर्थ में कार्त्तिकेय का अन्य नाम अग्निभू है। कृत्तिका नक्षत्र में ६ चमकीले तारा हैं (१ अन्य थोड़ा मन्द है), अतः कार्त्तिकेय की ६ माता हैं। या कार्त्तिकेय का पालन ६ माताओं ने किया। तैत्तिरीय संहिता में ६ माताओं के नाम हैं जो भारत के विभिन्न भागों में देवीरूप में प्रचलित हैं। ये भारत की ६ दिशाओं में ६ सैन्य क्षेत्र थे, जो सेनापति रूप में कार्त्तिकेय के ६ दिशा में मुख हैं अर्थात् ६ दिशाओं में दृष्टि रखते थे।
कार्त्तिकेय के पीठों के नाम और स्थान हैं-१. दुला-ओड़िशा तथा बंगाल, २. वर्षयन्ती-असम, ३. चुपुणीका-पंजाब, कश्मीर (चोपड़ा उपाधि), ४. मेघयन्ती-गुजरात राजस्थान-यहां मेघ कम हैं पर मेघानी, मेघवाल उपाधि बहुत हैं। ५. अभ्रयन्ती-महाराष्ट्र, आन्ध्र (अभ्यंकर), ६. नितत्नि (भूमि पर फैली लता, भारत का दक्षिण भाग)-तमिलनाडु, कर्णाटक। अतः ओड़िशा में कोणार्क के निकट बहुत से दुला देवी के मन्दिर हैं। दुलाल = दुला का लाल कार्त्तिकेय।
अत्र जुहोति अग्नये स्वाहा, कृत्तिकाभ्यः स्वाहा, अम्बायै स्वाहा, दुलायै स्वाहा, नितत्न्यै स्वाहा, अभ्रयन्त्यै स्वाहा, मेघयन्त्यै स्वाहा, चुपुणीकायै स्वाहेति। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/४/१-९)
अम्बा (नामासि प्रजापतिना त्वा विश्वाभिर्धीभिरुपदधामि), दुला (नामासि --), नितत्नि (नामासि --), अभ्रयन्ती (नामासि --), मेघयन्ती (नामासि --), वर्षयन्ती (नामासि --), वर्षयन्ती (नामासि --), चुपुणीका (नामासि --)-- (तैत्तिरीय सं, ४/४/५)
कार्त्तिकेय की पत्नी षष्ठी देवी हैं। कार्त्तिक शुक्ल षष्ठी को उनकी पूजा रूप में छठी है।
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