*सच कहूं दोस्त, आँखें नम हो गईं।*
“पेन में स्याही भरवाने के लिए दुकानदार के सामने लाइन में खड़ी हमारी पीढ़ी…”
दुकानदार भी स्याही की बूंदें गिनकर पेन में डालता था।
पहले से होल्डर खोलकर रख देते और लाइन में खड़े हो जाते।
“कभी स्याही हाथ पर गिर जाती, तो उसी को माथे पर पोंछ लिया करते।
कभी शर्ट खराब हो जाता, तो कभी हाफ पैंट।”
“इस लाइन ने ही हमारी पीढ़ी को सहनशील बना दिया।”
“वो स्याही मिलने की खुशी अलग ही थी।”
“स्कूल में तो कुछ बोलने का सवाल ही नहीं था।”
“कान पकड़ो,”
“मुर्गा बनो,”
“बेंच पर खड़े रहो,”
“अंगूठा पकड़ो,”
“क्लास के बाहर खड़े रहो,”
“ऐसी सारी सजा हंसते-हंसते सह ली।”
“टीचरों से भी कई छड़ी खाई।”
“इससे भी सहनशीलता बढ़ी।”
“लेकिन उस पढ़ाई का स्वाद ही अलग था।”
“पुराने कपड़ों से सिलकर बनाए गए बस्ते इस्तेमाल करती हमारी पीढ़ी…”
बस्ता मतलब कपड़े की थैली।
“अधिक से अधिक, उसमें कम्पास रखने के लिए अंदर एक पॉकेट बनाई जाती।”
“अब तो ऐसा बस्ता फिर कभी मिलेगा नहीं। स्कूल से आने के बाद फेंकने में जो मजा आता था!”
“और माँ को ‘खेलने जा रहा हूँ’ चिल्लाने में भी मजा आता था।”
“वॉटर बैग नाम की चीज़ तो अस्तित्व में ही नहीं थी।”
“सीधे जाकर स्कूल के हौज के नल को मुँह लगाकर पानी पी लेते।”
“हौज साफ है या नहीं, पानी साफ है या नहीं, इसकी चिंता कभी मन में नहीं थी।”
“लेकिन प्यास पूरी हो जाती।”
“शर्ट ऊपर करके या शर्ट की बाहों से मुँह पोंछ लेते।”
“स्कूल पैदल ही जाने वाली हमारी पीढ़ी।”
“साइकिल मतलब लग्ज़री थी उस समय।”
“अगर साइकिल होती भी, तो हर बार चेन गिरती।”
“चेन लगाने में बड़ी परेशानी होती और हाथ के साथ मुँह भी काला हो जाता।”
“काले हाथ मिट्टी से पोंछकर साफ करते, बड़ा मजा आता।”
पुरानी साइकिल खरीदने-बेचने का खूब चलन था।
“किसकी साइकिल बिकने वाली है, इसकी खोज होती।”
“दस बार मिलकर, बिचौलिया लगाकर, मोलभाव करके कीमत तय होती।”
“पहले आधा पैडल मारना सीखते, फिर धीरे-धीरे टांग मारकर चलाना, और बाद में डबल सीट।”
“दसवीं तक पूरे स्कूल को पता होता कि अगली क्लास के टॉपर कौन हैं।”
“किसके पास अच्छे हालात में किताबें मिलेंगी, ये दो-चार महीने पहले ही पता लगाया जाता।”
“जिसके पास किताबें होतीं, उसके पास कई बार चक्कर लगाकर और सिफारिश लगाकर किताबें ली जातीं।”
“किताबें ध्यान से देखी जातीं और फिर उनकी कीमत तय होती।”
“अधिकतर आधी कीमत में सौदा पक्का होता।”
“किताबें मिलतीं तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता, और कवर चढ़ाने में जो उत्साह होता!”
पुरानी कॉपियाँ संभालकर रखी जातीं।
“कॉपियों को संभालकर ही इस्तेमाल किया जाता।”
“ज्यादा से ज्यादा खाली पन्ने बचाए जाते।”
“सभी खाली पन्ने अलग निकालकर इकट्ठा किए जाते। फिर किसी प्रेस वाले को ढूंढकर, मोलभाव करके बाइंडिंग करवाई जाती।”
“इसके लिए कई बार चक्कर लगाने पड़ते।”
“आखिर में जब कॉपियाँ मिलतीं, तो खुशी से उछलते हुए घर आते।”
“एक नई कॉपी चाहिए होती, तो माँ से सिफारिश करनी पड़ती। दस बार माँगने के बाद ही मिलती।”
“यहीं से ‘ना’ को स्वीकारना सीखा और सहनशीलता बढ़ी।”
“सालभर में कपड़ों के केवल दो जोड़े मिलते।”
“एक स्कूल का और दूसरा दिवाली के त्योहार के लिए।”
“तब तक पुराने कपड़ों में पैबंद लगाकर पहनना पड़ता।”
“लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।”
“दिवाली के कपड़े बड़े संभालकर इस्तेमाल होते।”
“माँगा तो तुरंत कुछ नहीं मिलता।”
“यहीं से ‘नकार’ को सहने की आदत लग गई।”
“उस समय आर्थिक स्थिति अच्छी हो या खराब, बच्चों के प्रति व्यवहार समान था। कोई भेदभाव नहीं था।”
“बच्चों के सभी दोस्त पता होते।”
“कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, सब पर नजर होती।”
“गलतियाँ होतीं, तो पहले कान पकड़े जाते।”
“बिना वजह ज्यादा लाड़-प्यार नहीं था।”
“बस, जरूरत भर का ही ध्यान रखा जाता। इसी से बच्चों के पैर ज़मीन पर रहते।”
“बड़ों का डर था।”
“सम्मान था।”
“गलती करने पर कई लोग पूछते – ‘तू अमुक का बेटा है ना? यहाँ क्या कर रहा है?’”
“उल्टा जवाब देने की हिम्मत नहीं होती।”
“कई बार मार खाकर भूखे ही सोना पड़ता।”
घर की कोई दादी, चाची या मौसी चुपचाप प्लेट में खाना लाकर प्यार से खिलाती।
“बच्चा रोते-रोते चार कौर खाता और उसी की गोद में सो जाता।”
“अगले दिन सब भुलाकर अपने काम पर लग जाता।”
“बच्चे समझ जाते कि जैसा हम चाहें, वैसा हर समय नहीं होता। इसी से नकार सहने की क्षमता अपने आप बन जाती।”
“ऐसा नहीं था कि कुछ करेंगे, तो ही कुछ मिलेगा।”
“थाली में जो परोसा, वही चुपचाप खाना पड़ता। नखरे नहीं चलते। वरना भूखे सोना पड़ता।”
“जीवन दिखावा नहीं था, सच्चा था।”
“दोस्त दिल के करीब होते।”
“कोई अवास्तविक अपेक्षाएँ नहीं थीं।”
“सपनों की सीमाएँ पता थीं।”
“माता-पिता को बच्चों की क्षमता पता होती, इसलिए उनकी भी ज्यादा अपेक्षाएँ नहीं थीं।”
“समय बदला और सबकुछ बदल गया।”
“लेकिन जीवन के खाली कागज पर स्याही के जो धब्बे पड़े, वे अभी भी वैसे ही हैं।”
“इस नीली स्याही ने सहनशीलता दी, उज्जवल भविष्य दिया, लड़ने की ताकत दी।”
“आत्महत्या जैसा विचार हमारी पीढ़ी के दिमाग में कभी नहीं आया। क्योंकि हमने स्कूल में अपमान सहते हुए समाज में मानसिक संतुलन बनाए रखना सीख लिया।”
*पुरानी यादों का उजाला
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