रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहा कोइ न हो,
हम सुखन कोइ न हो,हम जुबा कोइ न हो,
बे दरो दीवार का एक घर बनया चहिये,
कोइ हम साया न हो,और पास वा कोइ न हो
लोग मिट जाते हैं एक घर बनाने में ,
तुम हिचकते नहीं बस्तियां जलाने में।
तुम हिचकते नहीं बस्तियां जलाने में।
ज़ेरे दीवार खड़े तेरा क्या लेते हैं,
देख लेते हैं लगी दिल की बुझा लेते हैं।
देख लेते हैं लगी दिल की बुझा लेते हैं।
मुफलिसी अपनों को बेगाना बना देती है,
कोई आता नहीं ,गिरती हुयी दीवार के पास !
कोई आता नहीं ,गिरती हुयी दीवार के पास !
अब मुझको उनसे कोई शिकायत नहीं रही,
इसकी भी उनको शिकायत है क्या करूँ?
इसकी भी उनको शिकायत है क्या करूँ?
"इधर आँख लगी ,
उधर ढल गयी ,
जवानी भी थी,
एक दोपहर धूप की"
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