आज से पांच वर्ष और पांच महीने पहले वह मेरे घर आयी थी.ऐसा नहीं कि वह मेरी पूर्व परिचित नहीं थी.उसके मेरे बीच अच्छा खासा स्नेह का आदान प्रदान था.
उसकी और मेरी मुलाकात मेरी ससुराल में हुई थी.१९९४ कि जनवरी में मेरी सास को गर्भाशय का केंसर हुआ था और मेरे प्रवासी जेठ जेठानिया ननदों वगैरह ने उन्हें इंग्लैंड बुलवाकर उनका इलाज कराया था.एक निश्चित सीमा तक केमोथेरिपी का इलाज करवाकर डॉक्टरों ने उन्हें वापस भेज दियाथा. तब अंतिम समय में हम सभी उनके पास एकत्रित हुए थे.मेरी ननदें जेठ जेठानियाँ पेशे से डॉक्टर हैं और उन्होंने सास कि मृत्यु को अधिक कष्टकारी न बना कर इलाज बंद करा दिया था.
फ़रवरी १९९५ तक सभी का एकमात्र विचार बिंदु सास रहीं ,फिर भी इतनी विषम स्थितियों में मैंने उसकी उपेक्षा नहीं होने दी.वह छोटी थी नादान थी उसका ध्यान रखना जरुरी था,यही चन्द दिनों का साथ हमदोनो को एक मजबूत प्यार कि डोर में बांध गया.
सास कि मृत्यु के बाद सभी अपने अपने कार्यस्थलों को लौट गए.ससुरजी वहीँ रह गए क्योंकि वे स्वयं पिछले पचास वर्षों से वहां डॉक्टर के तौर पर कार्यरत थे.वह ससुर जी कि प्यारी थी दुलारी थी.उन्होंने स्वयं ही उसे वहां बुलवाया था.मेरी बड़ी ननद का बेटा जो एयर लाइंस में कार्यरत था प्लेन से ही उसे ले गया था.वह ससुर जी कि अकलेपन कि साथी बन गयी थी.वे उसका पूरा खयाल रखते थे .उसके पैर में बड़ा सा घाव हो गया था और हर दूसरे दिन उसे एक इंजेक्शन लगाया जाता था ,तब मैं पड़ोस में रहनेवाले एक रिश्तेदार के घर चली जाया करती थी,मैं स्वभावतः दूसरे के कष्ट से बहुत ज्यादा दुखी होने वाली महिला रही हूँ.
२६ अप्रैल १९९५ कि शाम मेरे पास {दिल्ली} एक फ़ोन आया कि अचानक ही हार्टफेल हो जाने से ससुर जी का देहांत हो गया .मात्र दो महीनों ओर बीस दिनों के अन्तराल पर घर में दूसरी मौत हम सभी के लिए कष्ट करी थी.मेरे पति रात भर सफ़र कर के वहां पहुंचे और तभी अंतिम संस्कार हो पाया क्योंकि बाकि लोगों का विदेश से इतनी जल्दी पहुँच पाना संभव न था.
अब तो वह घर और ससुर जी का क्लिनिक सभी कुछ वरिसो के लिए मात्र जायदाद बन कर रह गया था,पर मेरा सारा ध्यान उसकी ओर था,वह मेरी चिंता का केंद्रबिंदु बन गयी थी.अब उसका क्या होगा?इस प्रश्न ने मुझे विचलित कर रखा था.प्रवासी लोग श्राद्धकर्म के बाद लौट गए.वे चाहते थे कि क्लिनिक जब तक कर्मचारियों के भोरोसे चले चलता रहे.घर के सभी कमरों में ताले लगा दिए गए .घर बड़ा सा हवेलीनुमा था.उसमे कई बरामदे कई दालान थे अतः उसे भी एक नौकर और दो कर्मचारियों के भरोसे छोड़ कर मेरे पति ने दिल्ली वापस लौटने का निर्णय लिया ,लेकिन मेरा दिल वहीँ रह गया.
२७ अप्रैल से नवम्बर अंत तक का समय मेरी जिद और मेरे पति की मानसिक कश्मकश में गुजरा.विषय वही था उसे दिल्ली ले आना .अंततः मेरी जीत हुई.मेरे पति जो इन महीनों में पुश्तैनी घर जाते रहे थे ,वहीँ से पांच हजार रुपये में टेक्सी किराये से लेकर उसे दिल्ली ले आये.उसने आते ही मुझे देखा और खुश हो गयी.उसने दौड़ दौड़ कर ख़ुशी का इज़हार किया.बेटे के स्कूल जाने पर और पति के काम पर जाने पर मैं उससे बातें करती रहती.वह हालाँकि मेरी बातों का जवाब नहीं दे पाती पर मेरी सभी बातें समझती और सभी आज्ञाओं का पालन करती.वह कई शब्द समझने लगी थी क्योंकि उसकी प्रतिक्रिया दर्शाती थी कि वह समझ रही है.
१९९९ कि मई में वह बीमार हुई,काफी गंभीर रूप से उसका लीवर ख़राब हुआ था.हमने उसके इलाज कराया.मध्यम आर्थिक स्थिति के बावजूद उसका ठीक होना हमारे लिए महत्वपूर्ण था और हमने दूसरे खर्चों कि कटौती भी खुशी ख़ुशी कर ली थी.एक दो छोटे छोटे क्लिनिक्स में दिखाने के बाद मेरे पति को एक अच्छे बड़े से प्राइवेट अस्पताल के बारे में पता चला और काफी महंगा होने के बावजूद अच्छे इलाज से वह जल्दी ही ठीक हो गयी.हमने राहत कि सांस ली.
इसके बाद वह दो वर्षों तक स्वस्थ तो रही किन्तु उसकी भूख कुछ कम हो गयी थी.वह कुछ सुस्त भी रहने लगी थी.हमें हमेशा लगता था कि बड़े से हवेलीनुमा घर से दिल्ली के छोटे से घर में उसे लाकर उसके साथ अन्याय तो नहीं किया.खैर जिंदगी अपनी गति से चलती रही.२४ फ़रवरी २००० में स्कूटर एक्सिडेंट में मेरे पति के पैर का फ्रेक्चर हुआ.उन्हें मजबूरन अपने दफ्तर में जो ग्राउंड फ्लोर पर है रहना पड़ा.वह चूँकि मेरे पति से काफी हिली मिली हुई थी अतः उन्हें घर लौटता न पाकर और उदास रहने लगी.
मैं उसे अपनी भाषा में समझाती और वह अपनी भाषा में समझ लेती थी.लम्बे प्लास्टर के दौरान एक बार मेरे पति बीच में घर आये,और प्लास्टर देख कर वह उनके रोज घर न आने का कारण बखूबी समझ गयी.मैं भी कई घंटों उसे छोड़ कर लगभग रोज पति को अस्पताल लाने लेजाने में लगी रही.इससे उसकी उदासी बढ़ गयी,पर मैं मजबूर थी.मैं दौड़ते भागते हुए उसके पास लौटती और उससे लिपट जाती थी. वह मेरे लिए राजकुमारी,राजदुलारी,और परियों कि रानी सी थी.
मेरा बेटा नागपुर में एक मेडिकल कॉलेज का छात्र था.२१ मई को उसने फ़ोन किया कि किसी फॉर्म वगैरह पर दस्तखत करने हैं तो उसके पापा उसके पास जल्दी पहुंचें .हम दोनों ने जाकर टिकिट बुक कर ली.२१ और २२ को उसने कुछ नहीं खाया था तो हम उसे नजदीकी अस्पताल में ले गए,दुर्भाग्यवश वह बंद हो चुका था.रात को बेटे का फ़ोन आया कि अभी आना जरुरी नहीं है तो टिकिट केंसल करवा लें .हम अपने बेटे को उसकी तबियत के बारे में बता भी नहीं पाए.
२३ मई अमावस्या थी.वह रात हम दोनों ने आँखों में कटी क्योंकि वह सो नहीं पा रही थी.वह बहुत बेचैन सी थी.हमने तय किया कि सुबह दस बजे अस्पताल खुलते ही उसे ले जायेंगे.सुबह टिकिट वापस करना भी जरुरी था.मैं चाह रही थी कि हम दोनों में से एक उसके पास रहे और दूसरा टिकिट वापस करने जाये पर मुझे पति कि जिद के आगे झुकाना पड़ा.
२४ मई सुबह साढ़े सात बजे हम उसे अकेला छोड़ कर टिकिट वापस करने गए और नौ बजे वापस लौटे.मैं तेजी से सीढियाँ चढ़ कर ऊपर आयी.रोशनी से अँधेरे में आने के कारण ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था.मैं उसे पुकारने लगी,धीरे धीरे —
फिर वह मुझे दिखाई दी, पलंग के नीचे उसके अपने गद्दे पर.फटी हुई आँखें ,मुंह खुला हुआ,मैंने उसे छुआ.उसका शरीर गरम ही था.मैं फिर उसे पुकारने लगी पर मुझे अपनी ही आवाज कांपती सी लगी.मैंने दौड़ कर अपने पति को बताया वे ऊपर नहीं आये वहीँ रोने लगे.मैं तो विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि वह नहीं रही थी.वह मुझे इस तरह छोड़ कर कैसे जा सकती थी.पर वह सच में जा चुकी थी,उसकी निष्प्राण देह पड़ी थी.मैंने उसे गद्दे सहित बहार खिंचा तो पाया कि गद्दा उसके दांतों में फंसा था,यह मेरे लिए और भी पीड़ा दायक था.
मैं कल्पना करने लगी कि न जाने कितना कष्ट पाया होगा उसने .क्या वह छटपटाई होगी ?हम दोनों ही नहीं थे उस वक़्त उसके पास.क्या हमारी अनुपस्थिति ने उसे और अधिक कष्ट दिया होगा?इस बीच मेरे पति ने दो रिक्शा बुलवा लिए थे.रिक्शे वाले ऊपर आ गए,मैंने धुली हुई चादर जमीन पर बिछा दी .दोनों ने उसकी मृत देह उठा कर चादर पर रखी.मैं तब भी पूछ रही थी भैया ये जिन्दा तो नहीं है?इसकी देह तो अब भी गर्म है.उन्होंने चादर कि गठरी सी बना ली.एक रिक्शे पर उसे रखा और दूसरे पर हम पति पत्नी बैठ गए .
हम दोनों ही रो रहे थे.यह उसकी अंतिम यात्रा थी.साढ़े पाँच वर्षों कि ममता और वात्सल्य से भरे पल क्या यहाँ आकर चूक गए थे?हमारे रिक्शे यमुना के किनारे पहुंचे.एक रिक्शे वाला लौट गया ,दूसरा कब्र खोदने लगा.मैं उस गठरी कि ओर देखे जा रही थी.मुझे लग रहा था मेरा कितना कीमती सामान इसमें रखा है,मैं यह भी सोच रही थी कि मैं उसके बगैर कैसे जीयूँगी ?वह हमारे जीवन का हमारे परिवार का अभिन्न अंग जो बन चुकी थी पिछले वर्षों में?
अब कब्र काफी गहरी हो चुकी थी,उसने गठरी को कब्र में उतारा,चादर कि गांठें खोल दीं.मुझे मिटटी डालने को कहा और फिर कब्र मिटटी से भर कर ढँक दी.मैंने अगरबत्तियां जला कर कब्र पर लगाईं ,सर झुका कर हाथ जोड़े,मैं उस आत्मा को नतमस्तक थी,जो परमात्मा का अंश थी और आज पुनः परमात्मा में विलीन हो गयी थी.
उसने मुझे मेरे पति और मेरे बच्चे को भरपूर प्यार दिया था.उसका कोई क़र्ज़ हम पर नहीं था.उसके श्रेष्ठ योनी में जन्म लेने कि मैं निरंतर ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी.वह मेरी प्यारी कुतिया “जेनी”थी,जिसका नाम आज भी मेरी जुबान से जब तब निकल पड़ता है.
समाप्त.
निरुपमा पेरलेकर सिन्हा द्वारा रचित एवम सितम्बर २०१० “तूलिका”पत्रिका में प्रकाशित
उसकी और मेरी मुलाकात मेरी ससुराल में हुई थी.१९९४ कि जनवरी में मेरी सास को गर्भाशय का केंसर हुआ था और मेरे प्रवासी जेठ जेठानिया ननदों वगैरह ने उन्हें इंग्लैंड बुलवाकर उनका इलाज कराया था.एक निश्चित सीमा तक केमोथेरिपी का इलाज करवाकर डॉक्टरों ने उन्हें वापस भेज दियाथा. तब अंतिम समय में हम सभी उनके पास एकत्रित हुए थे.मेरी ननदें जेठ जेठानियाँ पेशे से डॉक्टर हैं और उन्होंने सास कि मृत्यु को अधिक कष्टकारी न बना कर इलाज बंद करा दिया था.
फ़रवरी १९९५ तक सभी का एकमात्र विचार बिंदु सास रहीं ,फिर भी इतनी विषम स्थितियों में मैंने उसकी उपेक्षा नहीं होने दी.वह छोटी थी नादान थी उसका ध्यान रखना जरुरी था,यही चन्द दिनों का साथ हमदोनो को एक मजबूत प्यार कि डोर में बांध गया.
सास कि मृत्यु के बाद सभी अपने अपने कार्यस्थलों को लौट गए.ससुरजी वहीँ रह गए क्योंकि वे स्वयं पिछले पचास वर्षों से वहां डॉक्टर के तौर पर कार्यरत थे.वह ससुर जी कि प्यारी थी दुलारी थी.उन्होंने स्वयं ही उसे वहां बुलवाया था.मेरी बड़ी ननद का बेटा जो एयर लाइंस में कार्यरत था प्लेन से ही उसे ले गया था.वह ससुर जी कि अकलेपन कि साथी बन गयी थी.वे उसका पूरा खयाल रखते थे .उसके पैर में बड़ा सा घाव हो गया था और हर दूसरे दिन उसे एक इंजेक्शन लगाया जाता था ,तब मैं पड़ोस में रहनेवाले एक रिश्तेदार के घर चली जाया करती थी,मैं स्वभावतः दूसरे के कष्ट से बहुत ज्यादा दुखी होने वाली महिला रही हूँ.
२६ अप्रैल १९९५ कि शाम मेरे पास {दिल्ली} एक फ़ोन आया कि अचानक ही हार्टफेल हो जाने से ससुर जी का देहांत हो गया .मात्र दो महीनों ओर बीस दिनों के अन्तराल पर घर में दूसरी मौत हम सभी के लिए कष्ट करी थी.मेरे पति रात भर सफ़र कर के वहां पहुंचे और तभी अंतिम संस्कार हो पाया क्योंकि बाकि लोगों का विदेश से इतनी जल्दी पहुँच पाना संभव न था.
अब तो वह घर और ससुर जी का क्लिनिक सभी कुछ वरिसो के लिए मात्र जायदाद बन कर रह गया था,पर मेरा सारा ध्यान उसकी ओर था,वह मेरी चिंता का केंद्रबिंदु बन गयी थी.अब उसका क्या होगा?इस प्रश्न ने मुझे विचलित कर रखा था.प्रवासी लोग श्राद्धकर्म के बाद लौट गए.वे चाहते थे कि क्लिनिक जब तक कर्मचारियों के भोरोसे चले चलता रहे.घर के सभी कमरों में ताले लगा दिए गए .घर बड़ा सा हवेलीनुमा था.उसमे कई बरामदे कई दालान थे अतः उसे भी एक नौकर और दो कर्मचारियों के भरोसे छोड़ कर मेरे पति ने दिल्ली वापस लौटने का निर्णय लिया ,लेकिन मेरा दिल वहीँ रह गया.
२७ अप्रैल से नवम्बर अंत तक का समय मेरी जिद और मेरे पति की मानसिक कश्मकश में गुजरा.विषय वही था उसे दिल्ली ले आना .अंततः मेरी जीत हुई.मेरे पति जो इन महीनों में पुश्तैनी घर जाते रहे थे ,वहीँ से पांच हजार रुपये में टेक्सी किराये से लेकर उसे दिल्ली ले आये.उसने आते ही मुझे देखा और खुश हो गयी.उसने दौड़ दौड़ कर ख़ुशी का इज़हार किया.बेटे के स्कूल जाने पर और पति के काम पर जाने पर मैं उससे बातें करती रहती.वह हालाँकि मेरी बातों का जवाब नहीं दे पाती पर मेरी सभी बातें समझती और सभी आज्ञाओं का पालन करती.वह कई शब्द समझने लगी थी क्योंकि उसकी प्रतिक्रिया दर्शाती थी कि वह समझ रही है.
१९९९ कि मई में वह बीमार हुई,काफी गंभीर रूप से उसका लीवर ख़राब हुआ था.हमने उसके इलाज कराया.मध्यम आर्थिक स्थिति के बावजूद उसका ठीक होना हमारे लिए महत्वपूर्ण था और हमने दूसरे खर्चों कि कटौती भी खुशी ख़ुशी कर ली थी.एक दो छोटे छोटे क्लिनिक्स में दिखाने के बाद मेरे पति को एक अच्छे बड़े से प्राइवेट अस्पताल के बारे में पता चला और काफी महंगा होने के बावजूद अच्छे इलाज से वह जल्दी ही ठीक हो गयी.हमने राहत कि सांस ली.
इसके बाद वह दो वर्षों तक स्वस्थ तो रही किन्तु उसकी भूख कुछ कम हो गयी थी.वह कुछ सुस्त भी रहने लगी थी.हमें हमेशा लगता था कि बड़े से हवेलीनुमा घर से दिल्ली के छोटे से घर में उसे लाकर उसके साथ अन्याय तो नहीं किया.खैर जिंदगी अपनी गति से चलती रही.२४ फ़रवरी २००० में स्कूटर एक्सिडेंट में मेरे पति के पैर का फ्रेक्चर हुआ.उन्हें मजबूरन अपने दफ्तर में जो ग्राउंड फ्लोर पर है रहना पड़ा.वह चूँकि मेरे पति से काफी हिली मिली हुई थी अतः उन्हें घर लौटता न पाकर और उदास रहने लगी.
मैं उसे अपनी भाषा में समझाती और वह अपनी भाषा में समझ लेती थी.लम्बे प्लास्टर के दौरान एक बार मेरे पति बीच में घर आये,और प्लास्टर देख कर वह उनके रोज घर न आने का कारण बखूबी समझ गयी.मैं भी कई घंटों उसे छोड़ कर लगभग रोज पति को अस्पताल लाने लेजाने में लगी रही.इससे उसकी उदासी बढ़ गयी,पर मैं मजबूर थी.मैं दौड़ते भागते हुए उसके पास लौटती और उससे लिपट जाती थी. वह मेरे लिए राजकुमारी,राजदुलारी,और परियों कि रानी सी थी.
मेरा बेटा नागपुर में एक मेडिकल कॉलेज का छात्र था.२१ मई को उसने फ़ोन किया कि किसी फॉर्म वगैरह पर दस्तखत करने हैं तो उसके पापा उसके पास जल्दी पहुंचें .हम दोनों ने जाकर टिकिट बुक कर ली.२१ और २२ को उसने कुछ नहीं खाया था तो हम उसे नजदीकी अस्पताल में ले गए,दुर्भाग्यवश वह बंद हो चुका था.रात को बेटे का फ़ोन आया कि अभी आना जरुरी नहीं है तो टिकिट केंसल करवा लें .हम अपने बेटे को उसकी तबियत के बारे में बता भी नहीं पाए.
२३ मई अमावस्या थी.वह रात हम दोनों ने आँखों में कटी क्योंकि वह सो नहीं पा रही थी.वह बहुत बेचैन सी थी.हमने तय किया कि सुबह दस बजे अस्पताल खुलते ही उसे ले जायेंगे.सुबह टिकिट वापस करना भी जरुरी था.मैं चाह रही थी कि हम दोनों में से एक उसके पास रहे और दूसरा टिकिट वापस करने जाये पर मुझे पति कि जिद के आगे झुकाना पड़ा.
२४ मई सुबह साढ़े सात बजे हम उसे अकेला छोड़ कर टिकिट वापस करने गए और नौ बजे वापस लौटे.मैं तेजी से सीढियाँ चढ़ कर ऊपर आयी.रोशनी से अँधेरे में आने के कारण ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था.मैं उसे पुकारने लगी,धीरे धीरे —
फिर वह मुझे दिखाई दी, पलंग के नीचे उसके अपने गद्दे पर.फटी हुई आँखें ,मुंह खुला हुआ,मैंने उसे छुआ.उसका शरीर गरम ही था.मैं फिर उसे पुकारने लगी पर मुझे अपनी ही आवाज कांपती सी लगी.मैंने दौड़ कर अपने पति को बताया वे ऊपर नहीं आये वहीँ रोने लगे.मैं तो विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि वह नहीं रही थी.वह मुझे इस तरह छोड़ कर कैसे जा सकती थी.पर वह सच में जा चुकी थी,उसकी निष्प्राण देह पड़ी थी.मैंने उसे गद्दे सहित बहार खिंचा तो पाया कि गद्दा उसके दांतों में फंसा था,यह मेरे लिए और भी पीड़ा दायक था.
मैं कल्पना करने लगी कि न जाने कितना कष्ट पाया होगा उसने .क्या वह छटपटाई होगी ?हम दोनों ही नहीं थे उस वक़्त उसके पास.क्या हमारी अनुपस्थिति ने उसे और अधिक कष्ट दिया होगा?इस बीच मेरे पति ने दो रिक्शा बुलवा लिए थे.रिक्शे वाले ऊपर आ गए,मैंने धुली हुई चादर जमीन पर बिछा दी .दोनों ने उसकी मृत देह उठा कर चादर पर रखी.मैं तब भी पूछ रही थी भैया ये जिन्दा तो नहीं है?इसकी देह तो अब भी गर्म है.उन्होंने चादर कि गठरी सी बना ली.एक रिक्शे पर उसे रखा और दूसरे पर हम पति पत्नी बैठ गए .
हम दोनों ही रो रहे थे.यह उसकी अंतिम यात्रा थी.साढ़े पाँच वर्षों कि ममता और वात्सल्य से भरे पल क्या यहाँ आकर चूक गए थे?हमारे रिक्शे यमुना के किनारे पहुंचे.एक रिक्शे वाला लौट गया ,दूसरा कब्र खोदने लगा.मैं उस गठरी कि ओर देखे जा रही थी.मुझे लग रहा था मेरा कितना कीमती सामान इसमें रखा है,मैं यह भी सोच रही थी कि मैं उसके बगैर कैसे जीयूँगी ?वह हमारे जीवन का हमारे परिवार का अभिन्न अंग जो बन चुकी थी पिछले वर्षों में?
अब कब्र काफी गहरी हो चुकी थी,उसने गठरी को कब्र में उतारा,चादर कि गांठें खोल दीं.मुझे मिटटी डालने को कहा और फिर कब्र मिटटी से भर कर ढँक दी.मैंने अगरबत्तियां जला कर कब्र पर लगाईं ,सर झुका कर हाथ जोड़े,मैं उस आत्मा को नतमस्तक थी,जो परमात्मा का अंश थी और आज पुनः परमात्मा में विलीन हो गयी थी.
उसने मुझे मेरे पति और मेरे बच्चे को भरपूर प्यार दिया था.उसका कोई क़र्ज़ हम पर नहीं था.उसके श्रेष्ठ योनी में जन्म लेने कि मैं निरंतर ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी.वह मेरी प्यारी कुतिया “जेनी”थी,जिसका नाम आज भी मेरी जुबान से जब तब निकल पड़ता है.
समाप्त.
निरुपमा पेरलेकर सिन्हा द्वारा रचित एवम सितम्बर २०१० “तूलिका”पत्रिका में प्रकाशित
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