मेरे बारे में---Nirupama Sinha { M,A.{Psychology}B.Ed.,Very fond of writing and sharing my thoughts

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गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

EK AUR SABAK !!

मैं और मेरे पति स्वभावतः दयालू हैं ,मानवीयता से परिपूर्ण। आज के समय में इसे प्रायः मूर्खता ही कहा जाता है।  हमें भी कई कई बार इस मानवीयता के बदले में अनपेक्षित ,दुखदायी अनुभव प्राप्त हुए। फिर भी रक्त में घुला  मिला यह गुण या यूँ कहें की दुर्गुण कभी कभी सर उठाता ही रहता है। कल भी हमारे साथ एक घटना घटी। मुझे और मेरे पति को इनकम टैक्स रिटर्न भरने के लिए सीए के कार्यालय जाना था। काम समाप्त कर पैसिफिक माल में थोड़ा वक़्त गुजारने का इरादा करके मेट्रो से हम सुभाष नगर  के स्टेशन पर उतरे। बाहर निकलते हुए सीढ़ियों के अंतिम हिस्से में हमने एक स्त्री को बैठे  हुए देखा। वह सीधे पल्ले की ठीक ठाक सी साडी पहनी माथे पर बिंदिया लगाई हुयी और सभ्रांत परिवार की लग रही थी। उसके भीख के लिए बढे हुए हाथ को नज़रअंदाज़ करते हुए ,हम पाँच छह कदम उससे आगे बढ़ गए थे,लेकिन हमें लगा कि शायद वह घरेलु अत्याचार  की सताई हुई कोई बदनसीब हो। हम दोनों एक दूसरे से सहमत हुए मेरे पति ने अपने वालेट से रुपये निकाले ,उसमे एक बीस और एक पचास का नोट उनके हाथ में आया ,उन्होंने तत्परता से पचास का नोट उसके हाथ में दे दिया। वो नोट को सर माथे से लगाकर कृतज्ञता व्यक्त कर रही थी। हम आगे बढ़ गए और मॉल पहुँच कर अपने आप में मग्न हो गए। लगभग सवा नौ बजे वापसी का इरादा कर के पुनः सुभाषनगर स्टेशन पहुंचे। वो स्त्री अभी भी वहीँ थी और रुपये  गिन  रही थी। उसने हमें पहचान लिया। उसके चेहरे में मुस्कान आ गयी। मैं इस बार भी दो सीढ़ी ऊपर चढ़ गई और साहस मुझे लगा कि उससे कुछ पूछा जाए। मेरे पति ने भी तब तक उससे पूछ लिया कि उसका घर कहाँ है ,उसने कुछ कहा ,मैं थोड़ा झुक कर उससे पूछने लगी की वो यहाँ क्यों है ,उसने पहला वाक्य तो " मेरी बहू मुझे यहाँ भेजती है कहती है पैसे लेकर आओ ,मैं टैगोर गार्डन से आती हूँ ,मेरे पति भी यही काम करते हैं ,मैंने दस लाख का क़र्ज़ लिया था ,आठ मैंने चुका दिए हैं अब दो लाख रहते हैं " यह सुनते ही मैं अवाक् रह गई ,शायद ऐसा प्रश्न उससे किसी ने कभी किया ही ना होगा और अप्रत्याशित रूप से प्रश्न पूछे जाने पर वह कोई कहानी नहीं बना पायी और सच बोल गई. मैं तुरंत पलटी और पति को बताते हुए सीढियां चढ़ने लगी। मेरे दिमाग में आंधियां चलने लगी ये सोच कर कि एक बार और हम ठगे गए।  मेरे पति मुझे समझा रहे थे की वो स्त्री एक और सबक दे गई ,आप जो देखते हैं,आप जो समझते हैं, वो सही नहीं होता ,सच आवरण में ही होता है और जो भी दिखता है आज के युग में उसका अधिकाँश हिस्सा  झूठ का मुलम्मा ही होता है।    

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