मेरे बारे में---Nirupama Sinha { M,A.{Psychology}B.Ed.,Very fond of writing and sharing my thoughts

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शनिवार, 20 जनवरी 2018

A Beautiful Poem !!

समय चला, पर कैसे चला... *पता ही नहीं चला...* *जिन्दगी कैसे गुजरती गई...* *पता ही नहीं चला...* _______________________________ कविता के लेखक को मेरा प्रणाम _______________________________ ज़िन्दगी की आपाधापी में, कब निकली उम्र हमारी, *पता ही नहीं चला।* कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे, कब कंधे तक आ गए, *पता ही नहीं चला।* एक कमरे से शुरू हुआ सफर, कब बंगले तक आ गया, *पता ही नहीं चला।* साइकिल के पैडल मारते हुए, हांफते थे उस वक़्त, अब तो बड़ी कारों में घूमने लगे हैं, *पता ही नहीं चला।* हरे भरे पेड़ों से भरे हुए जंगल थे तब, कब हुए कंक्रीट के, *पता ही नहीं चला।* कभी थे जिम्मेदारी माँ बाप की हम, कब बच्चों के लिए हुए जिम्मेदार हम, *पता ही नहीं चला।* एक दौर था जब दिन में भी बेखबर सो जाते थे, कब रातों की उड़ गई नींद, *पता ही नहीं चला।* बनेंगे कब हम माँ बाप सोचकर कटता नहीं था वक़्त, कब हमारे बच्चों को बच्चे हो गए, *पता ही नहीं चला।* जिन काले घने बालों पर इतराते थे हम, कब रंगना शुरू कर दिया, *पता ही नहीं चला।* होली और दिवाली मिलते थे, यार, दोस्तों और रिश्तेदारों से, कब छीन ली प्यार भरी मोहब्बत आज दे दौर ने, *पता ही नहीं चला।* दर दर भटके हैं, नौकरी की खातिर खुद, कब करने लगे लोग नौकरी हमारे यहाँ, *पता ही नहीं चला।* बच्चों के लिए कमाने, बचाने में इतने मशगूल हुए हम, कब बच्चे हमसे हुए दूर, *पता ही नहीं चला।* भरे पूरे परिवार से सीना चौड़ा रखते थे हम, कब परिवार हम दो पर सिमटा, *।।। पता ही नहीं चला ।।

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