मेरे बारे में---Nirupama Sinha { M,A.{Psychology}B.Ed.,Very fond of writing and sharing my thoughts

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बुधवार, 14 अगस्त 2019

Indian History by Prashant Pol !!

आज से यह बहुप्रतीक्षित आलेख मालिका प्रारंभ होने जा रही है।_
 _यह मालिका १५ भागों की है।_
 _वरिष्ठ विचारक, लेखक, स्तम्भकार श्री प्रशांत पोळ, जबलपुर ने यह शोधपरख आलेख श्रृंखला तैयार की है।_
 _आप इन आलेखों को प्रतिदिन अपने मित्रों या अन्य लोगों को भी अग्रेषित कर सकते है

भाग् -2

वे पन्द्रह दिन

*२ अगस्त १९४७*
- प्रशांत पोळ

१७, यॉर्क रोड.... इस पते पर स्थित मकान, अब केवल दिल्ली के निवासियों के लिए ही नहीं, पूरे भारत देश के लिए महत्त्वपूर्ण बन चुका था. असल में यह बंगला पिछले कुछ वर्षों से पंडित जवाहरलाल नेहरू का निवास स्थान था. भारत के ‘मनोनीत’ प्रधानमंत्री का निवास स्थान. और इस उपनाम या पद में से ‘मनोनीत’ शब्द मात्र तेरह दिनों में समाप्त होने वाला था. क्योंकि *१५ अगस्त से जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार का आरम्भ करने जा रहे थे.*

१७, यॉर्क रोड.... इस पते पर अधिकारियों एवं नागरिकों की हलचल तेजी से बढ़ने लगी थी. वैसे तो यॉर्क रोड यह पहले से ही महत्त्वपूर्ण मार्ग था. बंगाल की अशांत स्थिति के कारण अंग्रेजों ने जब अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का निर्णय लिया, उस समय अर्थात १९११ में एडविन लुटियन नामक ब्रिटिश आर्किटेक्ट को ‘नई दिल्ली’ की रचना का कार्य सौंपा गया. लुटियन ने दिल्ली के इस महत्त्वपूर्ण इलाके की रचना का काम इसी यॉर्क रोड से प्रारम्भ किया था. नेहरू जिस बंगले में रह रहे थे, वह सन १९१२ में बनाया गया था.

इसी बंगले में २ अगस्त १९४७ की सुबह, बेहद व्यस्तता और आपाधापी भरी थी. ब्रिटिश साम्राज्य की तरफ से हस्तांतरण के लिए केवल तेरह दिन बाकी थे. उस कार्यक्रम की तैयारी करना तो एक प्रमुख विषय था ही, परन्तु अनेक महत्त्वपूर्ण विषय लगातार बहते झरने के समान नेहरू के सामने आते जा रहे थे. राष्ट्रगीत से लेकर मंत्रिमंडल के गठन तक की बड़ी लंबी कार्यसूची नेहरू के सामने थी. *इन सबके बीच १५ अगस्त के दिन किस प्रकार की पोशाक पहनी जाए, इतनी छोटी सी बात पर भी नेहरू ध्यान रखे हुए थे.* काँग्रेस के कुछ नेता एवं प्रशासन के कई वरिष्ठ अधिकारी १७, यॉर्क रोड पर आकर बैठे थे. उन सभी से नेहरू को अलग-अलग विषयों पर चर्चा करनी थी. इसी कारण उस दिन नेहरू ने जल्दी-जल्दी में अपना नाश्ता समाप्त किया और एक अत्यधिक व्यस्त दिन का सामना करने की तैयारी में लग गए.

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इधर दूसरी तरफ, भारत के स्वतंत्रता दिवस से पहले भारत में शामिल होने वाले राज्यों के बारे में कई घटनाएं लगातार घटित हो रही थीं. सरदार वल्लभभाई पटेल स्वयं एक-एक राज्य, एक-एक राजशाही पर अपनी निगाह बनाए हुए थे. इस काम के लिए उन्होंने अपने गृह विभाग में वी. के. मेनन जैसे अत्यधिक कुशल प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति भी कर रखी थी. सरदार पटेल की सूचना के आधार पर २ अगस्त को प्रातः वी के मेनन ने भारत के विषय को देखने वाले विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी सर पेट्रिक को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने सूचित किया कि ‘भारत में आकार एवं आर्थिक दृष्टि से जो बड़े रजवाड़े हैं, जैसे कि मैसूर, बड़ौदा, ग्वालियर, बीकानेर, जयपुर एवं जोधपुर, वह भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार हैं. फिलहाल हैदराबाद, भोपाल एवं इंदौर ने इस सम्बन्ध ने कोई निर्णय नहीं लिया है.’ इन रजवाड़ों का निर्णय अभी लंबित था.

भोपाल, हैदराबाद एवं जूनागढ़ इन तीनों रजवाड़ों की इच्छा भारत के साथ रहने की कतई नहीं थी. इसी सन्दर्भ में २ अगस्त को भोपाल के नवाब ने जिन्ना को एक पत्र लिखा. *जिन्ना और भोपाल के नवाब हमीदुल्ला दोनों अच्छे मित्र थे. अपने इस मित्र को लिखे पत्र में नवाब हमीदुल्ला ने लिखा कि ‘अस्सी प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या वाली मेरी भोपाल रियासत इस ‘हिन्दू भारत’ में एकदम एकाकी और अलग-थलग पड़ गई है. मेरी इस रियासत को मेरे और इस्लाम के दुश्मनों ने चारों तरफ से घेर रखा है.* कल रात को ही आपने यह स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान भी हमारी कोई मदद नहीं कर सकता है.’
 भाग -4

"वे पन्द्रह दिन

*४ अगस्त, १९४७*
-  प्रशांत पोळ

आज चार अगस्त... सोमवार.

दिल्ली में वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की दिनचर्या, रोज के मुकाबले जरा जल्दी प्रारम्भ हुई. दिल्ली का वातावरण उमस भरा था, बादल घिरे हुए थे, लेकिन बारिश नहीं हो रही थी. कुल मिलाकर पूरा वातावरण निराशाजनक और एक बेचैनी से भरा था. वास्तव में देखा जाए तो सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के लिए माउंटबेटन के सामने अभी ग्यारह रातें और बाकी थीं. हालांकि उसके बाद भी वे भारत में ही रहने वाले थे, भारत के पहले ‘गवर्नर जनरल’ के रूप में. लेकिन उस पद पर कोई खास जिम्मेदारी नहीं रहने वाली थी, क्योंकि १५ अगस्त के बाद तो सब कुछ भारतीय नेताओं के कंधे पर आने वाला ही था.

परन्तु अगले ग्यारह दिन और ग्यारह रातें लॉर्ड माउंटबेटन के नियंत्रण में ही रहने वाली थीं. इन दिनों में घटित होने वाली सभी अच्छी-बुरी घटनाओं का दोष अथवा प्रशंसा उन्हीं के माथे पर, अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य के माथे पर आने वाली थी. इसीलिए यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी और उतनी ही उनकी चिंताएं भी...

सुबह की पहली बैठक बलूचिस्तान प्रांत के सम्बन्ध में थी. फिलहाल इस सम्पूर्ण क्षेत्र में अंग्रेजों का निर्विवाद वर्चस्व बना हुआ था. ईरान की सीमा से लगा यह प्रांत, मुस्लिम बहुल था. इस कारण ऐसा माना जा रहा था कि यह प्रांत तो पाकिस्तान में शामिल हो ही जाएगा. लेकिन इस कल्पना में एक पेंच था. *बलूच लोगों के तार, संस्कृति एवं मन, कभी भी पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांत के मुसलमानों से जुड़े हुए नहीं थे.* बलूच लोगों की अपनी एक अलग विशिष्ट संस्कृति थी, स्वयं की अलग भाषा थी. बलूच भाषा काफी कुछ ईरान के सीमावर्ती बलूच लोगों से मिलती-जुलती थी. इस बलूच भाषा और संस्कृति में ‘अवस्ता’ नामक भाषा की झलक दिखाई देती थी, जो कि संस्कृत भाषा से मिलती हुई थी. इसी कारण पाकिस्तान में शामिल होना कभी भी बलूच जनता के सामने पहला या अंतिम विकल्प नहीं था.

बलूच जनता का मत भी दो भागों में बंटा हुआ था. कुछ लोगों की इच्छा थी कि बलूचों को ईरान में विलीन करना चाहिए. लेकिन समस्या यह थी कि ईरान में शिया मुसलमानों का शासन था और बलूच तो सुन्नी मुसलमान थे. इस कारण वह विकल्प खारिज कर दिया गया. अधिकांश नेताओं का मानना था कि भारत के साथ मिलना अधिक सही होगा. इस विचार को कई नेताओं का समर्थन भी हासिल था. लेकिन भौगोलिक समस्या आड़े आ रही थी. बलूच प्रांत और भारत के बीच में पंजाब और सिंध का इलाका आता था, तो इस विकल्प को भी मजबूरी में खारिज करना पड़ा. अंततः दो ही विकल्प बचे थे कि या तो बलूचिस्तान एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में रहे या फिर मजबूरी में पाकिस्तान के साथ मिल जाए, जहां संभवतः सुन्नियों का बहुमत रहेगा. माउंटबेटन की आज की बैठक इसी विषय को लेकर होने जा रही थी.

इस विशेष बैठक में बलूचिस्तान के ‘खान ऑफ कलात’ कहे जाने वाले मीर अहमद यार खान और मोहम्मद अली जिन्ना शामिल थे. जिन्ना को सात अगस्त के दिन कराची जाना था इसीलिए उनकी सुविधा को देखते हुए चार अगस्त के दिन सुबह यह बैठक रखी गई थी.

इस बैठक में मीर अहमद यार खान ने, ‘भविष्य के पाकिस्तान’ के सन्दर्भ में अनेक शंकाएं उपस्थित की. उनके अनेक प्रश्न थे. माउंटबेटन का स्वार्थ यह था कि बलूचिस्तान को पाकिस्तान में विलीन हो जाना चाहिए. क्योंकि छोटे-छोटे स्वतन्त्र देशों के बीच सत्ता का हस्तांतरण करना उनके लिए कठिन कार्य था. *इसीलिए जब इस बैठक में मोहम्मद अली जिन्ना, बलूच नेता मीर अहमद यार खान को बड़े-बड़े भारी भरकम आश्वासन दे रहे थे, उस समय लॉर्ड माउंटबेटन यह साफ-साफ़ समझ रहे थे कि ये आश्वासन खोखले साबित होने वाले हैं. परन्तु फिर भी अपनी परेशानी कम करने के लिए वे जिन्ना के समर्थन में हां में हां मिलाते रहे.* डेढ़-दो घंटे चली इस महत्त्वपूर्ण बैठक के अंत में मीर अहमद यार खान पाकिस्तान में विलीन होने के पक्ष में थोड़े से झुके हुए दिखाई दिये. परन्तु फिर भी उन्होंने अपना अंतिम निर्णय घोषित नहीं किया और यह बैठक अनिर्णय की स्थिति में समाप्त हो गई.

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उधर दूर पंजाब प्रांत के लायलपुर जिले में आतंक ने आज अपना प्रभाव दिखाना आरम्भ कर दिया हैं. पंजाब का लायलपुर इलाका बेहद उपजाऊ जमीन वाला है. इसीलिए यहां के लोग धनवान एवं समृद्ध हैं. कपास एवं गेहूं की जबरदस्त पैदावार होती हैं. कपास के कारण कई सूती मिलें, कारखाने इस जिले में हैं. आटे और शकर की भी कई मिलें हैं. लायलपुर, गोजरा, तन्देवाला, जरनवाला इन नगरों में बड़े-बड़े बाजार हैं. *ये सारी मिलें, कारखाने, बाज़ार, अधिकतर हिन्दू-सिख व्यापारियों के नियंत्रण में ही हैं. बड़ी-बड़ी साठ कम्पनियां हिंदुओं और सिखों के पास हैं, जबकि मुसलमानों के पास केवल दो ही हैं.* समूचे जिले की ७५% जमीन सिखों के पास हैं. खेती से सम्बन्धित शासन की कमाई का ८०% हिस्सा सिखों के माध्यम से ही आता हैं. लायलपुर में, पिछले वर्ष, १९४६ में, हिंदुओं और सिखों ने इकसठ लाख, नब्बे हजार रूपए का कर भरा था, जबकि मुसलमानों ने केवल पांच लाख तीस हजार रूपए का.

जब यह ख़बरें आने लगीं कि लायलपुर पाकिस्तान में शामिल होगा और मुस्लिम लीग के पोस्टर दिखाई देने लगे, तब भी हिंदु और सिख व्यापारियों ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया. जिले के डिप्टी कमिश्नर हमीद, मुसलमान होने के बावजूद निष्पक्ष रवैया अपनाए हुए थे. इसलिए हिन्दू - सिखों को कभी भी ऐसा लगा ही नहीं कि उन्हें इस क्षेत्र में कोई दिक्कत होगी.

आज, यानी ४ अगस्त १९४७ को, जिले के जरनवाला में ‘मुस्लिम नेशनल गार्ड’ की एक बैठक चल रही हैं. *पन्द्रह अगस्त से पहले इस पूरे जिले के हिन्दू-सिख व्यापारियों और किसानों को यहां से मारकर कैसे भगाना है, और उनकी संपत्ति-जमीन-मकान अपने कब्जे में कैसे लिए जाएं... इस बारे में गंभीर चर्चा चल रही हैं.* लाहौर से आए मुस्लिम नेशनल गार्ड के पदाधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदु – सिखों की लड़कियों को छोड़कर सभी को मारा जाए. आज की रात को छोटी-छोटी कार्यवाहियां करने का निश्चय किया गया. मध्यरात्रि को सूती मिलों के मालिकों के मकानों पर हमला करना तय हुआ.

_यदि आज की रात, यानी ४ अगस्त १९४७ को, किसी व्यक्ति ने हिंदु और सिखों से यह कहा होता कि ‘अगले तीन सप्ताह के भीतर लायलपुर जिले के लगभग सभी हिन्दू-सिख अपनी-अपनी संपत्ति, समृद्धि, मकान, जमीन छोड़कर निःसहाय स्थिति में शरणार्थी शिविर में रोटी के दो टुकड़ों के लिए मोहताज होने वाले हैं, इनमें आधे से अधिक हिन्दू-सिख काट दिए जाएंगे और कई हजार हिन्दू लड़कियों को उठा लिया जाएगा....’ तो निश्चित ही उस व्यक्ति को लोगों ने पागल कहा होता..._

परन्तु दुर्भाग्य से यही सही था, और वैसा ही हुआ भी.

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दिल्ली के १७, यॉर्क रोड, अर्थात नेहरू के निवास स्थान पर तमाम दौडधूप जारी थी. स्वतन्त्र भारत के पहले मंत्रिमंडल का गठन होने जा रहा था. इस सम्बन्ध की अनेक औपचारिकताएं पूरी करनी थीं. कल डॉक्टर राजेन्द्रप्रसाद को मंत्रिमंडल स्थापना के सम्बन्ध में जो पत्र दिया जाना था, वह रह गया था. इसलिए आज सुबह नेहरू ने वह पत्र, डॉक्टर राजेन्द्रप्रसाद के घर भिजवाया.

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इधर श्रीनगर में गांधीजी की सुबह हमेशा की तरह ही हुई. पिछले तीन दिनों से उनका निवास स्थान, अर्थात किशोरीलाल सेठी का घर, काफी आरामदेह था. परन्तु अब गांधीजी के प्रस्थान का समय आ चुका था. उनका अगला ठिकाना जम्मू था. हालांकि वहां पर वे अधिक समय रुकने वाले नहीं थे, क्योंकि उन्हें आगे पंजाब में जाना था. इसलिए नित्य प्रार्थना समाप्त करने के बाद गांधीजी ने स्वल्पाहार ग्रहण किया. शेख अब्दुल्ला की बीवी यानी बेगम अकबर जहाँ, और उनकी लड़की, सुबह से ही गांधीजी को विदा करने के लिए पहुंचे हुए थे. *बेगम साहिबा की तहे-दिल से यह इच्छा थी कि गांधीजी अपने सम्पूर्ण प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए शेख अब्दुल्ला को जेल से बाहर निकालने का प्रयास करें.* इसी विषय पर वे बारम्बार गांधीजी को स्मरण दिलवाती रहती थीं. गांधीजी भी अपने दांत विहीन पोपले मुंह से, मुस्कुराते हुए उन्हें समर्थन देते रहते थे.

_(उस समय बेगम साहिबा को कतई अंदाजा नहीं था कि गांधीजी की इस मेजबानी और उनकी लगातार बिनती का फायदा होगा, और शेख अब्दुल्ला साहब उनकी सजा पूरी होने से काफी पहले, केवल डेढ़ माह में ही जेल से बाहर आएंगे)._

दरवाजे के बाहर गाड़ियों का काफिला खडा था. मेजबान, यानी किशोरीलाल सेठी स्वयं सारी व्यवस्थाओं पर ध्यान रखे हुए थे. महाराज हरिसिंह के राजदरबार से भी एक अधिकारी गांधीजी की विदाई हेतु नियुक्त किया गया था. ठीक दस बजे गांधीजी के इस काफिले ने अपनी पहली कश्मीर यात्रा का समापन करते हुए जम्मू की दिशा में प्रवास शुरू किया.

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सईद हारून. उन्नीस वर्ष का एक लड़का. जिन्ना का परम भक्त. कराची में ही पैदा हुआ और बड़ा हुआ. आगे जाकर कॉलेज में ‘मुस्लिम नेशनल गार्ड’ के संपर्क में आया और उनका कट्टर कार्यकर्ता बन गया.

दोपहर चार बजे कराची के क्लिफटन नामक एक धनाढ्य बस्ती में स्थित एक मस्जिद में उसने कुछ मुसलमान युवकों की एक बैठक रखी थी. *कराची से सारे के सारे हिंदुओं को मारकर भगाने के लिए भिन्न-भिन्न उपायों पर चर्चा करने के लिए यह बैठक थी.*

सात अगस्त को साक्षात जिन्ना कराची में पधारने वाले थे. उनके स्वागत की तैयारियां भी इस चर्चा का एक प्रमुख मुद्दा था. मुस्लिम नेशनल गार्ड के सभी कार्यकर्ता भावुक हो चले थे. पिछले कुछ दिनों से इन सभी का प्रशिक्षण चल रहा था. लेकिन इनमें से एक लड़के, गुलाम रसूल का कहना था कि, “आर. एस. एस. वाले ज्यादा अच्छे तरीके से प्रशिक्षण देते हैं”. अंत में यह सहमति बनी कि आर. एस. एस. के कार्यकर्ता और कुछ सिखों को छोड़कर बाकी कहीं से अधिक प्रतिकार होने की उम्मीद कम ही है. इसके अनुसार ही हिंदुओं पर हमला किया जाएगा.

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सुबह वायसरॉय हाउस में बलूचिस्तान संबंधी अपनी बैठक निपटाकर बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना अपने १०, औरंगजेब रोड स्थित बंगले में वापस आए. दिल्ली के लुटियन ज़ोन का यह बंगला जिन्ना ने १९३८ में खरीदा था. इस विशालकाय बंगले की दीवारों ने पिछले चार-पांच वर्षों में अनेक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक बैठकें देखी थीं. जिन्ना कुछ माह पहले ही समझ चुके थे कि दिल्ली से अब उनका दानापानी उठने वाला है. इसीलिए उन्होंने यह बंगला एक महीने पहले ही, प्रसिद्ध व्यवसायी रामकृष्ण डालमिया को बेच दिया था.

जिन्ना को यह आभास हो चला था, कि अब शायद अगली दो या तीन रातें ही इस बंगले में उनकी अंतिम रातें साबित होने जा रही हैं. इस कारण सामान की पैकिंग और साज-संभाल के लिए उन्हें थोड़ा वक्त चाहिए था. गुरूवार, सात अगस्त की दोपहर को वे लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा उपलब्ध करवाए गए विशेष डकोटा विमान से कराची जाने वाले थे. कराची, यानी पाकिस्तान में... उनके सपनों के देश में...!

इस बीच उन्होंने एक प्रतिनिधिमंडल को समय दे रखा था. यह प्रतिनिधिमंडल था, दक्षिण भारत की विशाल रियासत, हैदराबाद के निजाम का. निजाम, भारत में विलय नहीं चाहता था. उसे पाकिस्तान में शामिल होना था. भौगोलिक रूप से यह नितांत असंभव था. इसीलिए निजाम को स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में, यानी ‘हैदराबाद स्टेट’ के रूप में, ही रहने की इच्छा थी. *स्वतन्त्र राष्ट्र की इच्छा रखने वाले हैदराबाद के निजाम को अन्य देशों के साथ व्यापार करने के लिए एक बंदरगाह की आवश्यकता थी. चूंकि हैदराबाद भारत के बीच में स्थित था, और उसके पास कोई समुद्री किनारा नहीं था, इसलिए ‘हैदराबाद स्टेट को भारत के बीच से किसी बंदरगाह के लिए ‘सुरक्षित मार्ग’ मिले, इस हेतु ‘मोहम्मद अली जिन्ना, लॉर्ड माउंटबेटन को एक पत्र लिखें’, ऐसी बिनती लेकर यह प्रतिनिधिमंडल आया था,* जिससे जिन्ना चर्चा करने वाले थे.

जिन्ना ने हैदराबाद के इस प्रतिनिधिमंडल की अच्छी खातिरदारी की. वे निजाम को दुखी भी नहीं करना चाहते थे. क्योंकि आखिर एक बड़े भू-भाग पर निजाम का शासन था. उनके पास अकूत धन-सम्पदा थी और वह मुसलमान भी थे. इसीलिए जिन्ना ने इस प्रतिनिधिमंडल की बातें बड़े ध्यान से सुनीं. वायसरॉय को वे ठीक वैसा ही पत्र लिखेंगे, ऐसा आश्वासन भी उन्होंने इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों को दिया. शाम ढलने लगी थी. आकाश में अभी भी बादल छाए हुए थे. गोधुली बेला के इस वातावरण में एक प्रकार की उदासीनता पसर चुकी थी. हालांकि इस लगभग उत्साहहीन माहौल में भी मोहम्मद अली जिन्ना, “मैं अगले दो दिनों में ही मेरे सपनों के देश, यानी पाकिस्तान जाने वाला हूँ”, ऐसा विचार करके अपने मन को उत्साहित रखने का असफल प्रयास कर रहे थे.

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उधर दूर, मुम्बई के लेमिंग्टन रोड पर नाज़ सिनेमा के पास, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय.

कार्यालय हालांकि छोटा सा ही हैं, परन्तु आज के दिन इस पूरे परिसर में एक विशिष्ट चैतन्यता का आभास हो रहा हैं. अनेक स्वयंसेवक कार्यालय की तरफ जाते दिखाई दे रहे हैं. शाम का अंधेरा हो चुका हैं. दिया-बत्ती का समय हैं. आज कार्यालय में प्रत्यक्ष सरसंघचालक श्री गुरूजी उपस्थित हैं.

मुम्बई के संघ अधिकारियों के साथ गुरूजी की तय की गई बैठक समाप्त हुई. बैठक के पश्चात संघ की प्रार्थना हुई. विकीर के बाद स्वयंसेवक व्यवस्थित कतारों से बाहर निकले. *सभी को गुरूजी से भेंट करने की इच्छा थी. गुरूजी के साथ ऐसी अनौपचारिक बैठकें बहुत लाभदायी सिद्ध होती थीं.*

परन्तु आज के दिन स्वयंसेवकों के मन में, इस बैठक को लेकर कौतूहल के साथ ही चिंता भी हैं. क्योंकि *कल से गुरूजी चार दिनों के सिंध प्रवास पर जा रहे हैं.* तीन जून के निर्णय के अनुसार, समूचा सिंध प्रांत पाकिस्तान के कब्जे में जाने वाला हैं. कराची, हैदराबाद, नवाबशाह जैसे समृद्ध शहरों वाला सिंध प्रांत भारत में नहीं रहेगा, इसकी त्रासदी प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में हैं.

संघ स्वयंसेवकों के मन में इससे भी अधिक चिंता का कारण यह हैं कि सिंध प्रांत में जबरदस्त दंगे शुरू हो गए हैं. मुस्लिम लीग के ‘मुस्लिम नेशनल गार्ड’ ने पन्द्रह अगस्त से पहले सिंध से सभी हिंदुओं का सफाया करने का निश्चय किया हैं. चूंकि कराची शहर, जिन्ना के निवास के कारण, होने जा रहे पाकिस्तान की ‘अस्थायी राजधानी’ जैसा बन चुका हैं. इसलिए इस शहर में बड़े पैमाने पर पुलिस और सेना का बंदोबस्त हैं. इसी कारण कराची शहर में हिंदुओं पर होने वाले आक्रमणों और अत्याचारों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम हैं. लेकिन हैदराबाद, नवाबशाह जैसे शहरों एवं ग्रामीण भागों में बड़े पैमाने पर हिंसाचार, हिंदुओं की लड़कियां उठा ले जाना, उनके मकान और कारखाने जलाना, दो-चार हिन्दू कहीं अलग से दिखाई दे जाएं तो उन्हें दिनदहाड़े काट डालना, जैसी असंख्य घटनाएं सामने आ रही हैं.

*ऐसी विकट परिस्थिति में गुरूजी की सुरक्षा की चिंता प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में हैं और उनके चेहरे पर झलक रही हैं.*

समूचा सिंध प्रांत जल रहा हैं, दंगों की आग भड़क चुकी हैं. हिंदुओं की लड़कियां उठाना मुसलमान गुंडों का प्रिय शगल बन चुका हैं. अनेक स्थानों पर, जहां पुलिस कम संख्या में हैं, वहां पुलिस का भी सक्रिय समर्थन इन मुस्लिमों को मिला हुआ हैं. *इस कठिन परिस्थिति में संघ के स्वयंसेवक अपने स्तर पर हिंदुओं की यथासंभव मदद कर रहे हैं और उन्हें सुरक्षित भारत पहुंचाने का रास्ता साफ़ कर रहे हैं.*

इन्हीं बहादुर संघ स्वयंसेवकों से भेंट करने के लिए गुरूजी अपने साथ डॉक्टर आबाजी थत्ते को लेकर सिंध प्रांत के दंगाग्रस्त इलाके में जा रहे हैं....

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रात के ग्यारह बज चुके हैं. अगस्त महीने की यह नमी भरी रात हैं. *सिंध, बलूचिस्तान, बंगाल इन प्रान्तों में अधिकांश हिंदुओं और सिखों के घरों में रतजगा जारी हैं.* दहशत के इस वातावरण में भला किसी को नींद आती भी तो कैसे? घर के बाहर युवाओं की गश्त चल रही हैं, जबकि घर के अंदर जितने भी शस्त्र मौजूद हैं, उन्हें लेकर सभी आबाल वृध्द, चिंतित चेहरे लेकर रात भर बैठे रहते हैं. देश के आधिकारिक विभाजन में अब केवल दस रातों का ही समय बचा हैं.

लायलपुर जिले का *जरनवाला* गांव..., शहीद भगतसिंह का पैतृक गांव. गांव तो क्या, लगभग शहरी इलाके को टक्कर देता हुआ ही हैं. इस गांव में हिन्दू और सिख बड़ी संख्या में रहते हैं. इसलिए उनका आशावाद ऐसा हैं कि शायद इस गांव पर मुसलमानों का हमला नहीं होगा. लेकिन रात के ग्यारह बजे अचानक गांव की तीन दिशाओं से पचास-पचास के जत्थों में, मुस्लिम नेशनल गार्ड के हमलावर कार्यकर्ता तेज धारों वाली तलवारें, फरसे और चाकुओं के साथ ‘अल्ला-हो-अकबर’ का नारा लगाते हुए दौड़ते आए. इस हमलावर भीड़ ने सरदार करतार सिंह के घर को सबसे पहले निशाना बनाया. करतार सिंह का मकान सादा मकान नहीं, बल्कि एक मजबूत गढ़ी हैं. अंदर सरदार करतार सिंह का १८ सदस्यीय परिवार हैं. वे भी अपनी-अपनी कृपाणें एवं तलवार लेकर तैयार बैठे हैं. स्त्रियों के हाथो में लाठियां और चाकू हैं. करतार सिंह की आंखों में गुस्से से खून उतर आया हैं.

इतने में मकान के बाहर से केरोसिन में भिगोया हुआ, कपास और कपड़े का बना हुआ एक जलता हुआ गोला बाहर पड़ी खटिया पर आ गिरा. खटिया जलने लगी. इतने में वैसे ही कई कपड़े के जलते हुए गोले घर के अंदर बरसने लगे. मजबूरी में करतार सिंह और उनके परिवार को, किले जैसे मजबूत घर से बाहर निकलने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं. *‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ का उदघोष करते हुए, क्रोध की ज्वाला अपनी आंखों में लिए, करतार सिंह के परिवार के ग्यारह पुरुष अपनी तलवारें और कृपाण लेकर बाहर निकले. लगभग आधे घंटे तक उन्होंने मुसलमानों के उस विशाल आक्रांता समूह का बड़ी हिम्मत और वीरता से जवाब दिया.* लेकिन इन सिखों में से नौ वहीं पर मार दिए गए. गांव वाले अन्य हिन्दू इनकी मदद के लिए दौड़े आए, इसलिए केवल दो लोगों को ही बचाना संभव हो सका. घर में छिपी बैठी सात स्त्रियों में से चार वृद्ध स्त्रियों को मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ताओं ने जलाकर मार डाला, जबकि दो जवान सिख लड़कियों को वे उठाकर भाग निकले. करतार सिंह की पत्नी कहां गई, किसीको नहीं मालूम....

मुसलमानों द्वारा दहशत का निर्माण किया जा चुका था. चार अगस्त की मध्यरात्रि तक अनेक स्थानों पर ऐसे ही हजारों हिन्दू-सिख परिवार, अपना सब कुछ वहीं छोड़-छाड़कर हिन्दुस्तान में शरण लेने की मनःस्थिति में आ चुके थे...!
- प्रशांत पोळ"""
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१, क्वीन विक्टोरिया रोड स्थित निवास में रहने वाले डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की व्यस्तताएं भी बहुत बढ़ गयी थीं. हालांकि भविष्य में भारत के पहले राष्ट्रपति बनने में काफी समय था, परन्तु वर्तमान नेतृत्व में वे एक पितृपुरुष के समान सभी बातों पर चारों ओर ध्यान रखे हुए थे. स्वाभाविक सी बात थी कि सत्ता हस्तांतरण के इस प्रमुख एवं नाजुक समय पर उनके पास विभिन्न प्रकार की सलाह मांगने वाले अथवा अन्य मसलों पर चर्चा करने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी. डॉक्टर राजेन्द्रप्रसाद मूलतः बिहार से थे. इसलिए बिहार से आने वाले अनेक प्रतिनिधिमंडल भिन्न-भिन्न प्रश्न लेकर उनके पास आते थे.

इसी बीच २ अगस्त की दोपहर को वे तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह को एक पत्र लिख रहे थे. यह पत्र १५ अगस्त का उत्सव मनाने के विषय में था. उन्होंने लिखा कि ‘पटना शहर में नागरिकों एवं प्रशासन के साथ सेना को भी इस उत्सव में शामिल होना चाहिए, ताकि इस कार्यक्रम की भव्यता में और भी वृद्धि होगी’.

सरदार बलदेव सिंह अकाली दल की तरफ से मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे और वे डॉक्टर राजेन्द्रप्रसाद का बहुत सम्मान करते थे. इसलिए वे राजेन्द्र बाबू के पत्र पर समुचित कार्यवाही करेंगे, यह निश्चित ही था.

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२ अगस्त की सुबह से ही संयुक्त प्रांत में (यानी वर्तमान उत्तरप्रदेश में) एक अलग ही नाटक खेला जा रहा था. *इस प्रदेश की हिन्दू महासभा के नेताओं को सरकार ने गत रात्रि को ही गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था.* इन पर आरोप लगाया गया था कि महासभा के नेतागण सरकार के विरुद्ध ‘’डायरेक्ट एक्शन’ का शंखनाद करने वाले हैं. *‘डायरेक्ट एक्शन’ नामक शब्द भारतीय राजनीति में बदनाम हो चुका था, क्योंकि केवल एक वर्ष पहले ही बंगाल में मुस्लिम लीग के हिंसक गुण्डों ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ के नाम पर पांच हजार से अधिक हिंदुओं का कत्लेआम एवं हजारों स्त्रियों के साथ बलात्कार किया था.*

काँग्रेस कार्यसमिति ने आगे चलकर विभाजन का जो प्रस्ताव स्वीकार किया, उसके पीछे ‘डायरेक्ट एक्शन’ शब्द की पाशविक स्मृतियां प्रमुख रूप से थीं. इस कारण ‘डायरेक्ट एक्शन’ के नाम से हिन्दू नेताओं को उठाकर जेल में ठूंसना बड़ा ही विचित्र मामला था, क्योंकि *इस शब्द का उपयोग केवल मुस्लिम लीग से ही जोड़ा जा सकता था.* यहां तक कि इस विचित्र समाचार को सिंगापुर से प्रकाशित होने वाले ‘इन्डियन डेली मेल’ नामक दैनिक ने भी प्रमुखता दी. शनिवार २ अगस्त के अंक में बिलकुल प्रथम पृष्ठ पर उन्होंने यह समाचार प्रकाशित किया था. इस समाचार के साथ ही हिन्दू महासभा की दस प्रमुख माँगें भी प्रकाशित की थीं. इस समाचार के कारण हिन्दू महासभा के समर्थकों में बेचैनी का वातावरण निर्मित हो गया था.

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उधर सुदूर ईस्टर्न फ्रंट के ‘कोहिमा’ से शनिवार २ अगस्त को एक और समाचार ने धमाका किया, जो कि भारतीय संघ राज्य के लिए अच्छी बात नहीं थी. ‘इंडिपेंडेंट लीग ऑफ कोहिमा’ ने ऐसी घोषणा की, कि १५ अगस्त को वे भारतीय संघ राज्य में शामिल नहीं हो रहे हैं. वे एक निर्दलीय नागा सरकार का गठन करेंगे, जिसमें नागा जनजाति की जनसंख्या वाला सम्पूर्ण प्रदेश होगा. १५ अगस्त को आकार ग्रहण करने जा रहे भारतीय संघ राज्य के सामने एक के बाद एक लगातार चुनौतियां खड़ी होती जा रही थीं.

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इन सब तनाव भरी ख़बरों की पृष्ठभूमि में देश-विदेश में भारतीय फ़िल्में लोगों का मनोरंजन कर ही रही थीं. सिंगापुर के डायमंड थियेटर में अशोक कुमार एवं वीरा अभिनीत फिल्म ‘आठ दिन’ काफी भीड़ खींच रही थी. इस फिल्म की कहानी उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार सआदत हसन मंटो ने लिखी थी और संगीतकार एस. डी. बर्मन ने इसी फिल्म के द्वारा भारतीय फिल्म जगत में पहला कदम रखा था.

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सरदार पटेल के दिल्ली स्थित निवास (यानी वर्तमान में १, औरंगजेब रोड) पर भी हलचलें तेज़ हो चुकी थीं. राज्यों के विलीनीकरण एवं साथ ही सिंध, बलूचिस्तान एवं बंगाल में भड़के हुए दंगे, इत्यादि तमाम मुद्दों पर गृह मंत्रालय की परीक्षा जारी थी. इसी समय दोपहर को सरदार पटेल को पंडित नेहरू द्वारा लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ. पत्र छोटा सा ही था. उसमें नेहरू ने लिखा था – *“देखा जाए तो केवल एक औपचारिकता के नाते मैं आपको यह पत्र भेज रहा हूं. मैं आपको अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण देना चाहता हूं. वैसे तो इस पत्र का कोई विशेष अर्थ नहीं है, क्योंकि आप तो पहले से ही मेरे मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं...”.*

सरदार पटेल ने वह पत्र ग्रहण किया. थोड़ी देर उस पत्र की तरफ देखा. हल्के से मुस्कुराए और तत्काल ही वे भारत-पाकिस्तान की सीमा (जो कि अभी तक घोषित नहीं हुई थी) पर भड़के हुए भीषण दंगों के बारे में अपने सचिव से चर्चा करने लगे.

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दिल्ली की इस आपाधापी और व्यस्तता के बीच उधर दूर महाराष्ट्र में आलंदी नामक स्थान पर काँग्रेस के अंदर वामपंथी विचारों वाले नेताओं का जमावड़ा लगा हुआ था. इस अंदरूनी वामपंथी समूह ने दो माह पहले ही तय कर लिया था कि २ और ३ अगस्त को इस समूह की बैठक होगी. शंकरराव मोरे एवं भाऊसाहेब राउत के आव्हान पर काँग्रेस की यह वामपंथी मण्डली वहां जमा हुई थी. भारत स्वतन्त्र होने वाला है और इस स्वतन्त्र भारत की चाभी अब काँग्रेस के हाथों में आने वाली है, यह उन्हें स्पष्ट रूप से दो माह पहले ही दिख गया था. अब इस समूह के सामने बड़ा सवाल यह था कि सत्ता हस्तांतरण की इस प्रक्रिया में वामपंथी और साम्यवादियों का क्या होगा? इसी का विचार मंथन करने के लिए यह बैठक दिल्ली से बहुत दूर बुलाई गई थी.

काँग्रेस के लिए काम कर रहे, लेकिन विचारों से वामपंथी, अनेक नेता जैसे तुलसीदास जाधव, कृष्णराव धुलूप, ज्ञानोबा जाधव, दत्ता देशमुख, र. के. खाडिलकर, केशवराव जेधे जैसे नामचीन और वरिष्ठ नेता इस बैठक में आए थे. काँग्रेस के अंदर ही मजदूरों एवं किसानों के लिए एक अलग कार्यकर्ता संघ की स्थापना करने की उनकी योजना थी. किसी ने सोचा भी न था कि इस बैठक से ही आगे चलकर भविष्य में महाराष्ट्र की एक प्रमुख और बड़ी वामपंथी विचारों का पोषण करने वाली तथा किसान-मजदूरों का पक्ष रखने वाली पार्टी जन्म लेगी. *२ अगस्त को संपन्न हुई इस बैठक में इन बड़े वामपंथी नेताओं ने भारत विभाजन अथवा भीषण पाशविक अत्याचारों से युक्त दंगों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा.. इन्हें केवल काँग्रेस में अपने भविष्य की चिंता सता रही थी.*

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दो अगस्त को ही मद्रास के एग्मोर इलाके में शाम को एक विशाल सभा में मद्रास प्रेसीडेंसी के खाद्य, औषधि एवं स्वास्थ्य मंत्री टी. एस. एस. राजन, एंग्लो इन्डियन समुदाय से संवाद स्थापित करने में लगे हुए थे. अंग्रेजों के जाने के बाद एंग्लो इंडियन समुदाय का क्या होगा यह प्रश्न अनेकों के मन में शंकाएं उत्पन्न कर रहा था.

इस समुदाय को आश्वस्त करते मंत्री महोदय ने कहा कि आपके इस छोटे से समुदाय ने अभी तक उत्तम पद्धति एवं संस्कार दिखाते हुए भारतीय समाज में मिल-जुलकर रहने की शानदार मिसाल पेश की है. आगे भी स्वतंत्रता के पश्चात आपको एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभानी है. काँग्रेस आपका पूरा ध्यान रखेगी.

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उधर पूना में हिन्दू महासभा ने एस. पी. कॉलेज पर एक सार्वजनिक सभा आयोजित की थी. देश की वर्तमान परिस्थिति, देश की स्वतंत्रता एवं विभाजन की घटनाओं पर इस सभा में स्वयं वीर सावरकर अपना भाषण देने वाले थे.

देखते ही देखते सभा में जबदरस्त भीड़ हो गई. इसे सच में एक ‘विशाल आमसभा’ कहा जा सकता था. अपने गरजदार और वैचारिक आग से भरे भाषण में स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने कहा कि, *आज देश में जो परिस्थिति निर्मित हुई है, इसके लिए प्रमुखता से केवल काँग्रेस ही नहीं सामान्य जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है. जनता ने समय-समय पर आंख मूंदकर लगातार काँग्रेस को जो समर्थन दिया, देश का विभाजन उसी की परिणति है.* काँग्रेस के नेताओं द्वारा बारंबार एक ही वर्ग का तुष्टिकरण करने की वजह से यह वर्ग और इसके नेता विभाजन करने में सफल हुए हैं.

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उधर श्रीनगर में गांधीजी की पहली बहुप्रचारित यात्रा का आज दूसरा दिन समाप्त होने जा रहा हैं. आज का दिन कोई खास महत्त्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ नहीं था. सुबह की प्रार्थना के पश्चात गांधीजी के ठिकाने, अर्थात किशोरीलाल सेठी के निवास स्थान, पर अकबर जहाँ अपनी बेटी को लेकर आईं. *इस मुलाक़ात में भी उन्होंने गांधीजी के सामने बार-बार यही सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनके शौहर अर्थात शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा किया जाना कैसे और क्यों जरूरी है.*

आज के दिन भी गांधीजी के चारों तरफ नेशनल कांफ्रेंस के ही मुस्लिम नेताओं का चुस्त घेरा बना हुआ था. हालांकि आज गांधीजी ने अनेक लोगों से भेंट की, जिसमें हिन्दू नेता भी थे. रामचंद्र काक द्वारा दिए गए निमंत्रण के अनुसार कल, अर्थात ३ अगस्त को गांधीजी, कश्मीर के महाराजा हरिसिंह से भेंट करने वाले हैं.

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आज के दिन भी लाहौर, रावलपिंडी, पेशावर, चटगाँव, ढाका, अमृतसर इत्यादि स्थानों से लगातार हिन्दू-मुस्लिम दंगों की ख़बरें आती रही हैं. *जैसे-जैसे रात का अंधेरा गहरा होता जा रहा हैं, वैसे-वैसे सम्पूर्ण प्रदेश के क्षितिज पर आग और धुएं की बड़ी-बड़ी लपटें दिखाई देने लगीं हैं...* दो अगस्त की यह काली और भयानक रात ऐसी ही अशांत रहने वाली हैं...
 - प्रशांत पोळ

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