परदेस----------------------------
बचपन से सुनती आई थी,
सात समंदर पार बसा है,
एक परियों का देश,
बोलचाल में जिसको,कहते हम परदेस।
वतन नहीं वह है अपना,
दूर बहुत जैसे सपना,
और पराये बसते उसमे,
इसीलिए कहते परदेस।
ब्रिटिश हो या हो अमरीकन,
डेनिश हो या हो जर्मन,
आम लोग देखें जब गोरे ,
कहते हैं उनको अंग्रेज।
मेरी भी थी यही धारणा,
अंग्रेज़ों की यही कल्पना,
मुख्य रूप से इसीलिये है,
इंग्लेंड ही,मेरा परदेस।
विषय वस्तु चाहे विभिन्न हो,
मूलरूप बिल्कुल इक जैसा,
विकसित देशों का है जीवन,
शैली और स्तर में एक जैसा।
स्कूल गई पढ़ा इतिहास,
दो सौ वर्ष अंग्रेजी राज,
अत्याचार और विद्रोह,
कैसे पाया पूर्ण स्वराज।
मेरे भोले भाले मन पर,
कोमल से भावुक से मन पर,
इन घटनाओं को पढ़ने से,
पड़ा बहुत ही अमिट प्रभाव।
तत्कालीन समय में उभरे,
मुख्य रूप से दो ही वर्ग,
एक वर्ग था क्रन्तिकारी,
दूजा अंग्रेज़ों का भक्त।
यह वर्ग था धन सम्पन्न ,
भाया जिन्हें अंग्रेजी ढंग,
उस शैली का जीवन यापन,
और वैसा ही जीवन स्तर।
बिलियर्ड खेलें क्लब में जाकर,
टेनिस टेनिस कोर्ट के अन्दर,
छुरी कांटे से करते भोजन,
धारें अंग्रेजी परिधान।
माँ कहती है नाना जी भी,
जीते थे वैसा ही जीवन,
नानी कोस करती उनको ,
पर संग रहे वे आजीवन।
मैंने बस घर में देखी है,
टंगी हुई उनकी तस्वीर,
लगती है अति रौबदार,
व्यक्तित्व में है एक तासीर।
बड़े चतुर व्यापारी थे वे,
अति सफल था उनका जीवन,
मिट्टी को सोना कर देते,
कर्मठ बन कर कदम कदम।
इन सारी बातों का अर्क,
भूल गई मैं सारे तर्क,
मेरे मन भी हुआ अदम्य ,
परदेस का आकर्षण।
बसा कहां है?कितनी दूर?
धरती के जाने किस छोर?
जाने को मैं थी लालायित,
नाच उठे था मन का मोर।
रानी विक्टोरिया की बातें,
पेन्स स्टर्लिंग पाऊंड की बातें,
गुदगुदाती मेरे मन को,
अंग्रेजी और अंग्रेज की बातें।
जब जब किसी सड़क पर देखे,
गोरे साहब गोरी मेम,
गिटपिट गिटपिट भाषा सुनकर,
देखा करती फाड़े नैन।
शीघ्र ही विदेश गमन का,
मैंने शुभ अवसर पाया,
बचपन के देखे सपनो के,
सच होने का समय आया।
जा बैठी विमान के अंदर ,
धक् धक् मन और उत्कंठित मन,
पहली बार हवाई यात्रा,
हवाईयां छायी आनन।
विशालकाय एक घर के तुल्य,
हज़ारों फीट धरा के ऊपर,
दैत्याकार उडता है कैसे,
लौह खंड निर्मित यह यान।
मानव के इस अविष्कार ने,
मुझको किया अत्यंत अचंभित,
विशालकाय डैने जब देखे,
सिहर उठी मन था भयभीत।
थोड़े से ही अंशकाल में,
मन में संयम था आया,
झाँका जब खिड़की के बाहर,
मेरा मन अति हर्षाया।
रुई के गालों से बादल,
उजले उजले प्यारे बादल,
इर्द गिर्द नीचे की ओर ,
मै थी विस्मित हर्ष विभोर।
वातावरण था मुदित प्रफुल्लित,
यात्रीगण थे मग्न मनस्थित,
परिचारिकाएं करती मनमोहित,
कोलाहल सा था तत गुंजित।
परिचारिका की मधु मुस्कान,
सेवा भाव और सबका ध्यान,
इसका यह और उसका वह,
दौड़ दौड़ कर करती काम।
दस घंटों की लम्बी यात्रा,
थकान और ऊब से भरी,
एक स्थान पर बंधी बंधी,
सोते सोते ही गुजरी।
आखिर जा पहुंची मैं लंदन ,
विशालकाय था विमान पत्तन,
चहल पहल थी चारों ओर ,
गमन आगमन का था शोर।
चेकिंग वाली क्यू थी लंबी ,
पूरे दो घंटे की बारी,
आखिरकार निकल कर बाहर,
फिर से की थी कार सवारी।
अतिथि मैं प्रियजन द्वार,
देश पराया,नव संसार,
अलग अलग थे क्रिया कलाप,
और परस्पर के व्यवहार।
डेढ़ माह के इस प्रवास में,
देखा समझा उनका जीवन,
दर्शनीय स्थल देखे सारे,
सुन्दर,आकर्षक,और प्यारे।
काली सफ़ेद कमीज और जींस ,
कपडे ना थे और रंगीन,
जैसे सरे देश में लागू ,
सख्ती से यूनिफॉर्म यही।
साफ़ सुथरी थीं सड़कें सारी ,
जैसे आँगन या बारादरी,
गोरे गोरे चेहरे सारे,
दुकानों में ज्यों सजे खिलौने।
स्वच्छता था एक अभियान,
प्रत्येक नागरिक को था ज्ञान,
सबकी इसमें भागीदारी,
कोई नहीं इससे अनजान।
मेरे मन को भाई किन्तु,
उनके राष्ट्र पर उनकी निष्ठा ,
सर्वोपरि है हर व्यक्ति को,
अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा।
सामंतवाद का ना था नाम,
अपने हाथों से सारे काम,
शर्म नहीं ना घटती शान,
देश को था इसपर अभिमान।
भारत में थी युगों युगों से,
आज भी है प्रथा यही,
कल भी थी महरी मिसरानी,
आज भी हैं नौकर दरबान।
राजमिस्त्री,लोहार,सुतार,
पीढ़ी दर पीढ़ी के काम,
जीवन यापन के ये साधन,
सबको देते हैं आराम।
जैसी जिसकी योग्यता,
जैसा है जिसका हुनर ,
पता है वह वैसी रोजी,
सदा रहे आत्म निर्भर।
इतनी भारी जनसंख्या में,
आत्म निर्भर ये रोजगार,
किसी तौर भी गलत नहीं हैं,
ना हि किसी पर अत्याचार।
इसीलिए परदेस का जीवन,
लगता है उनको भारी,
जो भारत में जिये शान से,
काम लगे है दुश्वारी।
बर्तन कपडे साफ़ सफाई ,
निपटाना सब काम रसोई,
दौड़ भाग कर काम पे जाना,
तब डॉलर या पाऊंड कमाई।
क्या है डॉलर पाऊंड की कीमत,
रूपया दिखता एक हिकारत,
विदेशी धन जब आता भारत,
बनता तब ही भारी दौलत।
दो पाऊंड की चाय कॉफ़ी,
या दो पाऊंड के सैंडविच,
थोडा खाकर पाऊंड बचते,
पूरा खाएं तो खर्चा भारी।
रूखे सैंडविच,सूखी ब्रेड,
गले उतारें पीकर सूप,
एक ब्रेड की कीमत में,
भारत में सिल जाए सूट।
होली हो या हो दिवाली,
बैसाखी या रक्षाबंधन,
पता नहीं चलते ये दिन,
जैसे हो सामान्य सा जीवन।
इन लोगों का इक त्यौहार,
लेते देते हैं उपहार,
एक वर्ष की दीर्घ प्रतीक्षा,
तब आता क्रिसमस इन द्वार।
मातपिता और भैया भाभी,
चाचा ताऊ और ताई चची,
बहू बेटा और मामा मामी,
मधुर हमारी रिश्तेदारी।
खुशियाँ बांटे हम सारे संग,
दुःख में भागिदार बनें हम,
चिंता और मुश्किल भी सांझी,
संबंध निभाते भारत वासी।
परदेस में देखे मैंने,
उखड़े उजड़े से संबंध ,
आत्मीयता का नाम नहीं,
परिवार भी अर्थ अनर्थ।
तुलना नहीं है मेरा ध्येय,
भारत के संस्कार अजेय,
जैसा देखा,जैसा पाया,
बांध दिया है शब्द सहेज।
जब लौटी मैं अपने देश,
हर्षातिरेक था विशेष,
भारत भूमि मुझको प्यारी,
देख लिया मैंने परदेस!
बचपन से सुनती आई थी,
सात समंदर पार बसा है,
एक परियों का देश,
बोलचाल में जिसको,कहते हम परदेस।
वतन नहीं वह है अपना,
दूर बहुत जैसे सपना,
और पराये बसते उसमे,
इसीलिए कहते परदेस।
ब्रिटिश हो या हो अमरीकन,
डेनिश हो या हो जर्मन,
आम लोग देखें जब गोरे ,
कहते हैं उनको अंग्रेज।
मेरी भी थी यही धारणा,
अंग्रेज़ों की यही कल्पना,
मुख्य रूप से इसीलिये है,
इंग्लेंड ही,मेरा परदेस।
विषय वस्तु चाहे विभिन्न हो,
मूलरूप बिल्कुल इक जैसा,
विकसित देशों का है जीवन,
शैली और स्तर में एक जैसा।
स्कूल गई पढ़ा इतिहास,
दो सौ वर्ष अंग्रेजी राज,
अत्याचार और विद्रोह,
कैसे पाया पूर्ण स्वराज।
मेरे भोले भाले मन पर,
कोमल से भावुक से मन पर,
इन घटनाओं को पढ़ने से,
पड़ा बहुत ही अमिट प्रभाव।
तत्कालीन समय में उभरे,
मुख्य रूप से दो ही वर्ग,
एक वर्ग था क्रन्तिकारी,
दूजा अंग्रेज़ों का भक्त।
यह वर्ग था धन सम्पन्न ,
भाया जिन्हें अंग्रेजी ढंग,
उस शैली का जीवन यापन,
और वैसा ही जीवन स्तर।
बिलियर्ड खेलें क्लब में जाकर,
टेनिस टेनिस कोर्ट के अन्दर,
छुरी कांटे से करते भोजन,
धारें अंग्रेजी परिधान।
माँ कहती है नाना जी भी,
जीते थे वैसा ही जीवन,
नानी कोस करती उनको ,
पर संग रहे वे आजीवन।
मैंने बस घर में देखी है,
टंगी हुई उनकी तस्वीर,
लगती है अति रौबदार,
व्यक्तित्व में है एक तासीर।
बड़े चतुर व्यापारी थे वे,
अति सफल था उनका जीवन,
मिट्टी को सोना कर देते,
कर्मठ बन कर कदम कदम।
इन सारी बातों का अर्क,
भूल गई मैं सारे तर्क,
मेरे मन भी हुआ अदम्य ,
परदेस का आकर्षण।
बसा कहां है?कितनी दूर?
धरती के जाने किस छोर?
जाने को मैं थी लालायित,
नाच उठे था मन का मोर।
रानी विक्टोरिया की बातें,
पेन्स स्टर्लिंग पाऊंड की बातें,
गुदगुदाती मेरे मन को,
अंग्रेजी और अंग्रेज की बातें।
जब जब किसी सड़क पर देखे,
गोरे साहब गोरी मेम,
गिटपिट गिटपिट भाषा सुनकर,
देखा करती फाड़े नैन।
शीघ्र ही विदेश गमन का,
मैंने शुभ अवसर पाया,
बचपन के देखे सपनो के,
सच होने का समय आया।
जा बैठी विमान के अंदर ,
धक् धक् मन और उत्कंठित मन,
पहली बार हवाई यात्रा,
हवाईयां छायी आनन।
विशालकाय एक घर के तुल्य,
हज़ारों फीट धरा के ऊपर,
दैत्याकार उडता है कैसे,
लौह खंड निर्मित यह यान।
मानव के इस अविष्कार ने,
मुझको किया अत्यंत अचंभित,
विशालकाय डैने जब देखे,
सिहर उठी मन था भयभीत।
थोड़े से ही अंशकाल में,
मन में संयम था आया,
झाँका जब खिड़की के बाहर,
मेरा मन अति हर्षाया।
रुई के गालों से बादल,
उजले उजले प्यारे बादल,
इर्द गिर्द नीचे की ओर ,
मै थी विस्मित हर्ष विभोर।
वातावरण था मुदित प्रफुल्लित,
यात्रीगण थे मग्न मनस्थित,
परिचारिकाएं करती मनमोहित,
कोलाहल सा था तत गुंजित।
परिचारिका की मधु मुस्कान,
सेवा भाव और सबका ध्यान,
इसका यह और उसका वह,
दौड़ दौड़ कर करती काम।
दस घंटों की लम्बी यात्रा,
थकान और ऊब से भरी,
एक स्थान पर बंधी बंधी,
सोते सोते ही गुजरी।
आखिर जा पहुंची मैं लंदन ,
विशालकाय था विमान पत्तन,
चहल पहल थी चारों ओर ,
गमन आगमन का था शोर।
चेकिंग वाली क्यू थी लंबी ,
पूरे दो घंटे की बारी,
आखिरकार निकल कर बाहर,
फिर से की थी कार सवारी।
अतिथि मैं प्रियजन द्वार,
देश पराया,नव संसार,
अलग अलग थे क्रिया कलाप,
और परस्पर के व्यवहार।
डेढ़ माह के इस प्रवास में,
देखा समझा उनका जीवन,
दर्शनीय स्थल देखे सारे,
सुन्दर,आकर्षक,और प्यारे।
काली सफ़ेद कमीज और जींस ,
कपडे ना थे और रंगीन,
जैसे सरे देश में लागू ,
सख्ती से यूनिफॉर्म यही।
साफ़ सुथरी थीं सड़कें सारी ,
जैसे आँगन या बारादरी,
गोरे गोरे चेहरे सारे,
दुकानों में ज्यों सजे खिलौने।
स्वच्छता था एक अभियान,
प्रत्येक नागरिक को था ज्ञान,
सबकी इसमें भागीदारी,
कोई नहीं इससे अनजान।
मेरे मन को भाई किन्तु,
उनके राष्ट्र पर उनकी निष्ठा ,
सर्वोपरि है हर व्यक्ति को,
अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा।
सामंतवाद का ना था नाम,
अपने हाथों से सारे काम,
शर्म नहीं ना घटती शान,
देश को था इसपर अभिमान।
भारत में थी युगों युगों से,
आज भी है प्रथा यही,
कल भी थी महरी मिसरानी,
आज भी हैं नौकर दरबान।
राजमिस्त्री,लोहार,सुतार,
पीढ़ी दर पीढ़ी के काम,
जीवन यापन के ये साधन,
सबको देते हैं आराम।
जैसी जिसकी योग्यता,
जैसा है जिसका हुनर ,
पता है वह वैसी रोजी,
सदा रहे आत्म निर्भर।
इतनी भारी जनसंख्या में,
आत्म निर्भर ये रोजगार,
किसी तौर भी गलत नहीं हैं,
ना हि किसी पर अत्याचार।
इसीलिए परदेस का जीवन,
लगता है उनको भारी,
जो भारत में जिये शान से,
काम लगे है दुश्वारी।
बर्तन कपडे साफ़ सफाई ,
निपटाना सब काम रसोई,
दौड़ भाग कर काम पे जाना,
तब डॉलर या पाऊंड कमाई।
क्या है डॉलर पाऊंड की कीमत,
रूपया दिखता एक हिकारत,
विदेशी धन जब आता भारत,
बनता तब ही भारी दौलत।
दो पाऊंड की चाय कॉफ़ी,
या दो पाऊंड के सैंडविच,
थोडा खाकर पाऊंड बचते,
पूरा खाएं तो खर्चा भारी।
रूखे सैंडविच,सूखी ब्रेड,
गले उतारें पीकर सूप,
एक ब्रेड की कीमत में,
भारत में सिल जाए सूट।
होली हो या हो दिवाली,
बैसाखी या रक्षाबंधन,
पता नहीं चलते ये दिन,
जैसे हो सामान्य सा जीवन।
इन लोगों का इक त्यौहार,
लेते देते हैं उपहार,
एक वर्ष की दीर्घ प्रतीक्षा,
तब आता क्रिसमस इन द्वार।
मातपिता और भैया भाभी,
चाचा ताऊ और ताई चची,
बहू बेटा और मामा मामी,
मधुर हमारी रिश्तेदारी।
खुशियाँ बांटे हम सारे संग,
दुःख में भागिदार बनें हम,
चिंता और मुश्किल भी सांझी,
संबंध निभाते भारत वासी।
परदेस में देखे मैंने,
उखड़े उजड़े से संबंध ,
आत्मीयता का नाम नहीं,
परिवार भी अर्थ अनर्थ।
तुलना नहीं है मेरा ध्येय,
भारत के संस्कार अजेय,
जैसा देखा,जैसा पाया,
बांध दिया है शब्द सहेज।
जब लौटी मैं अपने देश,
हर्षातिरेक था विशेष,
भारत भूमि मुझको प्यारी,
देख लिया मैंने परदेस!
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