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बुधवार, 10 जनवरी 2024

Dharm & Darshan !! Gayatri mantr !! ( Rajendra ki kalam se)

 गायत्री की सांगोपांग व्याख्या

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जो अपने-आप मे एक पदा द्वि पदा त्रिपदा तथा चतुष्पदा है


गायत्री मंत्र:- ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।


शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। इसके जप के लिए तीन समय बताए गए हैं। गायत्री मंत्र का जप का पहला समय है प्रात:काल, सूर्योदय

से थोड़ी देर पहले मंत्र जप शुरूकिया जाना चाहिए। जप सूर्योदय के पश्चात तक करना चाहिए।


मंत्र जप के लिए दूसरा समय है दोपहर का। दोपहर में भी इस मंत्र का जप किया जाता है।


तीसरा समय है शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले मंत्र जप शुरूकरके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना चाहिए। 


इन तीन समय के अतिरिक्त यदि गायत्री मंत्र का जप करना हो तो मौन रहकर या मानसिक रूप से जप करना चाहिए। मंत्र जप तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।


अर्थ


गायत्री मंत्र का अर्थ : सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, वह परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।


अथवा


उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।


[ गायत्री मन्त्र की विस्तृत विवेचना ] 

शब्दार्थ एवं भावार्थ ~


जो गय (प्राणों) की रक्षा करती है - वह गायत्री है। प्राण कहते हैं चैतन्यता एवं सजीवता को । हमारे भीतर जो गति, क्रिया, विचार शक्ति, विवेक एवं जीवन धारण करने वाला तत्व है- वह प्राण कहलाता है । इस प्राण के कारण ही हम जीवित हैं । प्राण शक्ति बढ़ाने, इसको सुरक्षित रखने, इसके निरर्थक व्यय/ ह्रास को रोकने- सभी में गायत्री मन्त्र जाप एवं गायत्री साधना हमारी सहायता करती है 


1. ऊँकार(अकार,उकार, मकार) को ब्रह्म कहा गया है। वह परमात्मा का स्वयंसिद्ध नाम है। इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है। इसी के भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर 'स्वस्तिक' बनता है। यह स्वस्तिक ऊँकार का रूप है। ऊँकार को 'प्रणव' भी कहते हैं। यही सब मन्त्रों का हेतु है, क्योंकि इसी से सभी शब्द और मन्त्र बनते हैं। 


2. गायत्री मन्त्र में ऊँकार के पश्चात् - भूः भुवः स्वः - यह तीन व्याह्रतियाँ आती हैं। व्याह्रतियों का यह त्रिक् अनेकों बातों की ओर संकेत करता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है। सत, रज,तम इन तीन गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है। अग्नि, वायु और सूर्य इन तीन प्रधान देवताओं का भी प्रतिनिधित्व यह तीन व्याह्रतियाँ करती हैं। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है। एक ऊँ की तीन संतान हैं- भूः भुवः स्वः ।


3. तत्- उस, वह का सूचक है। यह शब्द परमात्मा - परब्रह्म की ओर संकेत करता है। मन्त्र में तत् शब्द का प्रयोग अनिर्वचनीय ईश्वर की ओर संकेत करने हेतु प्रयोग किया गया है।


4. सवितुः - सविता सूर्य को कहते हैं, जो तेजस्वी एवं प्रकाश मान है। परमात्मा की अनन्त शक्तियाँ हैं। उनमें तेजस्वी शक्तियों को सविता कहा गया है। ईश्वर की तेज शक्ति को धारण करके हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वांग पूर्ण तेज युक्त बनें।


5. वरेण्य- श्रेष्ठतम को वरण करने, चुनने, ग्रहण करने योग्य को, धारण करने योग्य को वरेण्य कहा गया है। ईश्वरीय सत्ता में से गायत्री द्वारा हम उन तत्वों को ग्रहण करते हैं जो वरेण्य हैं, श्रेष्ठ हैं, ग्रहण करने योग्य हैं। धर्म, कर्तव्य, अध्यात्म, सत्,चित्, आनन्द, सत्य, शिव, सुन्दर की ओर जो तत्व हमें अग्रसर करते हैं- वे वरेण्य हैं।


6. भर्ग - बुराइयों का, अज्ञान अन्धकार का नाश कर देने, भस्म / जला देनेवाली परमात्मा की शक्ति 'भर्ग' कहलाती है। हम भर्ग को अपने में धारण कर बुराइयों, पापों, दुर्बलताओं, कुपप्रवृत्तियों से सावधान रहें और उन्हें नष्ट करने के लिए सदा धर्मयुद्ध करते रहें।


7. देवस्य - देव कहते हैं दिव्य को, अलौकिक को, असाधारण को। जो अपने शक्ति/ सामर्थ्य को परमार्थ, दूसरों की सेवा में लगाने, देते रहने की इच्छा करते हैं, वे देवता हैं।


8. धीमहि कहते हैं ध्यान करने को। जिस वस्तु का हम ध्यान करते हैं- उस पर मन जमता है- इससे उसमें रुचि उत्पन्न होती है, जिससे उसे प्राप्त करने की आकांक्षा बढ़ती है, अतः प्रयत्न उत्पन्न होता है और यह प्रयत्न अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करा देता है। ध्यान बीज है और सफलता उसका फल।


9. धियः - आत्मा को सर्वाधिक आवश्यकता सद्बुद्धि की पड़ती है- इसी को धियः कहते हैं। गायत्री में इसी की प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है।


10. यः (यो) का अर्थ है 'जो' । यह 'जो' का संकेत अनिर्वचनीय परमात्मा के लिए है। जो परमात्मा उपरोक्त शक्तियों/ गुणों वाला है वह हमारे लिए धियः तत्व (सद्बुद्धि) प्रदान करे।


11. नः का अर्थ है 'हम लोगों का' - हमारा। मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना/ याचना की गई है। पर वह अकेले अपने लिए नहीं की गई है वरन् विस्तृत 'हम' के लिए की गई है। हम सबको सद्बुद्धि मिले। मेरे अन्तर्जगत और वाह्य जगत में सर्वत्र सद्बुद्धि का प्रकाश हो - ऐसी प्रार्थना भगवान से की जाती है।


12. प्रचोदयात् का अर्थ है प्रेरणा करना, बढ़ाना। यह कहकर परमात्मा से बुद्धि को प्रेरित करने की याचना की गई है। जिससे उत्साहित होकर हम अपने अन्तःकरण का निर्माण करने में जुट जावें। अपनी कु-बुद्धि से लड़कर उसे परास्त करें और सुबुद्वि की स्थापना का पुरुषार्थ दिखावें। 


सद्बुद्धि की 'अन्तःप्रेरणा' ईश्वर से ही प्राप्त होती है । परन्तु यह सद्बुद्धि भी अपने प्रयत्न से ही आती है, इसके लिए संयम, व्रत-उपवास, स्वाध्याय, सत्संग, ध्यान, प्रार्थना, सेवा आदि सद्कर्मों का आश्रय लेना पड़ता है।


जो कुछ वेदों में है उसका सारांश गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में सन्निहित है~यदि कोई इनका अर्थ, भाव,रहस्य एवं सन्देश भली-भांति समझ ले-तो उसे वेद, पुराण, शास्त्र, स्मृति, उपनिषद आदि की सभी बातों का स्वयंमेव ज्ञान हो सकता है। 


1. भोग प्रधान एवं स्वार्थ प्रधान विचारों वाली तमसाच्छादित बुद्धि से मनुष्य का सच्चा हित नहीं हो सकता और न उससे आत्मिक सुख- शान्ति ही मिल सकती है। तमसाच्छादित बुद्धि द्वारा उत्पन्न विचार और कार्य हमारी प्राण शक्ति को दिनोंदिन घटाते हैं- उसे निर्बल बनाते रहते हैं।


2. जबकि सतोगुणी ऋतम्भरा विवेक बुद्धि (गायत्री) हमारे शारीरिक आहार-विहार को सात्विक रखती है, मन को उचित दिशा में प्रेरित करके हमें सन्मार्ग पर चलाती है।


3. इसी सतोगुणी दैवी- तत्वों से आच्छादित सद्बुद्धि को गायत्री कहा गया है। सात्विक विचार/ कार्यों को अपनाने से मनुष्य की प्रत्येक शक्ति की रक्षा होती है और उसमें वृद्धि होती है। इस प्रकार गायत्री सद्बुद्धि देकर हमारी प्राण रक्षा का हेतु बनती है- वह हमारे बन्द पड़े विवेक रूपी तृतीय नेत्र को खोलती है- जिससे समस्त श्रेष्ठ शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं।


4.  गायत्री महामन्त्र 

ऊँ 

भूर्भुवःस्वः 

तत्सवितुर्वरेण्यं 

भर्गो देवस्य धीमहि 

धियो यो नः प्रचोदयात् 


5. ऊँकार(अकार,उकार, मकार) को ब्रह्म कहा गया है। वह परमात्मा का स्वयंसिद्ध नाम है। इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है। इसी के भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर 'स्वस्तिक' बनता है। यह स्वस्तिक ऊँकार का रूप है। ऊँकार को 'प्रणव' भी कहते हैं। यही सब मन्त्रों का हेतु है, क्योंकि इसी से सभी शब्द और मन्त्र बनते हैं। 


6. इसके प्रभाव से तीन व्याह्रतियाँ 

(भूः भुवः स्वः) उत्पन्न हुईं और व्याह्रतियों में से तीनों वेदों का आविर्भाव हुआ। भूः से ऋग्वेद, भुवः से यजुर्वेद, स्वः से सामवेद।


7. 'ऊँ' के निरन्तर जप से मौनी बुद्धि के कारण इधर-उधर भटकते हुए मन पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है।


8. ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी इसी एकाक्षर मन्त्र "ऊँ" का निरन्तर ध्यान करते हैं। वेद भगवान का उपदेश है कि ऊँ का निरन्तर स्मरण/ जप/कीर्तन एवं श्रवण करने से मनुष्य परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


9. इसीलिए प्रायः सभी मन्त्रों में और विशेष रूप से गायत्री मन्त्र में सर्वप्रथम इस प्रणव (ऊँ) का उच्चारण आवश्यक बताया गया है। बिना ऊँ के समस्त कर्म, यज्ञ, जप आदि निष्फल होते हैं।


10. "ऊँ" शब्द परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी प्राणी में प्रायोजित नहीं हो सकता, क्योंकि प्राणी अल्पज्ञानी, अपूर्ण और न्यूनतायुक्त होता है।


चेहरे की चमक बढ़ाए :-

इस मंत्र के नियमित जाप से त्वचा में चमक आती है। नेत्रों में तेज आता है। सिद्धि प्राप्त होती है। क्रोध शांत होता है। ज्ञान की वृद्धि होती है।


पढ़ने में भी मन लगाए :-

विद्यार्थियों के लिए यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का 108 बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाती है।


दरिद्रता का नाश करे :-

व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो

गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो अधिक लाभ होता है।


संतान का वरदान :-

किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर 'यौं' बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है।


शत्रुओं पर विजय :-

शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहे हैं तो मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे 'क्लीं' बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार 108 बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।।


विवाह कराए गायत्री मंत्र :-

यदि विवाह में देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए 'ह्रीं' बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर 108 बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं।


रोग निवारण :

यदि किसी रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ 'ऐं ह्रीं क्लीं' का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसका रोग भी नाश होता हैं।


गायत्री हवन से रोग नाश :-

किसी भी शुभ मुहूर्त में दूध, दही, घी एवं शहद को मिलाकर 1000 गायत्री मंत्रों के साथ हवन करने से चेचक, आंखों के रोग एवं पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं। इसमें समिधाएं पीपल की होना चाहिए।

गायत्री मंत्रों के साथ नारियल का बुरा एवं घी का हवन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है। नारियल के बुरे मे यदि शहद का प्रयोग किया जाए तो सौभाग्य में वृद्धि होती है।

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