Bazigar —–बाज़ीगर—-
कमाल के बाज़ीगर हो तुम ,
क्या रचाया है खेल तुमने
सारे लोग बस मुंह बाए देखते ही रह जाते हैं,
तुम्हारी मर्ज़ी से आँख खुलती है
तुम्हारी मर्ज़ी से हो जाती है बंद
किससे क्या छीन रहा है
तुम्हे इससे कोई सरोकार ही नहीं
कोई गम के सैलाब में डूब रहा है
सराबोर हो रहा है दुखो में
तो तुम्हे इससे क्या ?
पता भी नहीं कि खेल कब तक चलेगा
कोई “मध्यांतर”भी नहीं है
“कष्ट”जो भोगने होते हैं “जरावस्था”में
वही जानता है जो उन्हें “भोगता”है
उसे कोई “बाँट”भी तो नहीं सकता
जी तोड़ कोशिश करता है इंसान ,मर्ज़ी से जीने की,
दुनिया भर की खुशियां अपने दामन में समेट लेने की
“ख्वाहिशों”पे कभी ना लगता है “पूर्ण विराम”
जानते हुए भी कि “ऊपर कुछ ले जाना नहीं”
सही गलत ,उल्टा सीधा सब करता रहता है यहाँ जमा करता है “सोना”
और तेरे घर के खाते में “खोटे ठीकरे” !!!!!