बंदौ गुरु के चरण सवेरे
जसु प्रकाश रेन भाव बीते होत ज्ञान के नेरे
हृदय कमल विकसित दर्शन कर बूढत नर्वट घनेरे
पाप उलूक रहत नहीं मन में चक्रवाक सुख केरे
हरि को रूप अरूप कहत है रूप लखै मन मेरे
भटके क्यों तू हरि दर्शन को गुरु ही हैं हरी तेरे !
जसु प्रकाश रेन भाव बीते होत ज्ञान के नेरे
हृदय कमल विकसित दर्शन कर बूढत नर्वट घनेरे
पाप उलूक रहत नहीं मन में चक्रवाक सुख केरे
हरि को रूप अरूप कहत है रूप लखै मन मेरे
भटके क्यों तू हरि दर्शन को गुरु ही हैं हरी तेरे !
कर प्रणाम तेरे चरणो में लगता हूँ अब जग के काज
पालन करने को तव आज्ञा मैं नियुक्त होता हूँ आज
अंतर में स्थिर रह कर मेरे बागडोर पकड़े रहना
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना
पाप वासना उठाते ही हो जाय नाश लाज से वह जल भून
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनाने में मेरे आये
तेरा ही गन गान ज्ञान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे
तू ही है सर्वज्ञ व्याप्त हरि ! tujhme yah सारा संसार
इसी भावना से अंतर भर मिलूं सभी से तुझे निहार
प्रति पल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूँ
केवल तुझे रिझाने को बस तेरा ही व्यवहार करूँ !
पालन करने को तव आज्ञा मैं नियुक्त होता हूँ आज
अंतर में स्थिर रह कर मेरे बागडोर पकड़े रहना
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना
पाप वासना उठाते ही हो जाय नाश लाज से वह जल भून
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनाने में मेरे आये
तेरा ही गन गान ज्ञान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे
तू ही है सर्वज्ञ व्याप्त हरि ! tujhme yah सारा संसार
इसी भावना से अंतर भर मिलूं सभी से तुझे निहार
प्रति पल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूँ
केवल तुझे रिझाने को बस तेरा ही व्यवहार करूँ !
मेरे हाल पर भी निहारो हे गुरुवार
किधर को भटकता चला जा रहा हूँ
बढ़ा जा रहा हूँ मैं सत्पथ पर स्वामी
या गोटे अँधेरे में ही खा रहा हूँ
नहीं पूजा करने की है नाथ ,शक्ति !
नहीं जनता हूँ की क्या चीज भक्ति
जिधर मन लिए जा रहा है उधर ही
उसी के सहारे बहा जा रहा हूँ
नहीं सेवा करने के काबिल है प्रभुवर
तेरे नाम की naav में baithkar ही
इधर से उधर को बढ़ा जा रहा हूँ
मैं हूँ दास चरणो का स्वामी तुम्हारे
क्षमा करदो अपराध सारे हमारे
तुम्हारी कृपा की है डरकर मुझको
इसीसे ये झोली मैं फैला रहा हूँ
है कितना लड़ा बोझ पापों का सरपर
और कब तक रहेगा असर इनका मुझ पर
प्रलय काल तक भी खत्म हो सकेगा
न अंदाज भी ये मैं कर पा रहा हूँ
अगर छूट सकूंगा किसी भी कदर से
तो केवल तुम्हारे कृपा की नज़र से
न दुत्कारना मुझको अपना ही लेना
ठिकाना कहीं और ना पा रहा हूँ
किधर को भटकता चला जा रहा हूँ
बढ़ा जा रहा हूँ मैं सत्पथ पर स्वामी
या गोटे अँधेरे में ही खा रहा हूँ
नहीं पूजा करने की है नाथ ,शक्ति !
नहीं जनता हूँ की क्या चीज भक्ति
जिधर मन लिए जा रहा है उधर ही
उसी के सहारे बहा जा रहा हूँ
नहीं सेवा करने के काबिल है प्रभुवर
तेरे नाम की naav में baithkar ही
इधर से उधर को बढ़ा जा रहा हूँ
मैं हूँ दास चरणो का स्वामी तुम्हारे
क्षमा करदो अपराध सारे हमारे
तुम्हारी कृपा की है डरकर मुझको
इसीसे ये झोली मैं फैला रहा हूँ
है कितना लड़ा बोझ पापों का सरपर
और कब तक रहेगा असर इनका मुझ पर
प्रलय काल तक भी खत्म हो सकेगा
न अंदाज भी ये मैं कर पा रहा हूँ
अगर छूट सकूंगा किसी भी कदर से
तो केवल तुम्हारे कृपा की नज़र से
न दुत्कारना मुझको अपना ही लेना
ठिकाना कहीं और ना पा रहा हूँ
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
हांसी खेल में उम्र बीती ये सारी
किया कुछ न जप टप न पूजा न वंदन
सदा पाप कर्मों में रमता ये तन मन
फांसा मोह में याद तेरी बिसारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
अँधेरी निशा है सहारा न कोई
तुझे ढूंढने में डगर आज खोई
भंवर में फांसी नाथ नैया हमारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
सदन गीध गणिका अजामिल को तारा
बचा ग्राह से नाथ गज को उबारा
सुनी द्रौपदी की तुम्हे जब पुकारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
पड़ा हूँ चरण में यही आस लेकर
उबारोगे हमको भी निज भक्ति देकर
बनूँगा किसी रोज तेरा पुजारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
हांसी खेल में उम्र बीती ये सारी
किया कुछ न जप टप न पूजा न वंदन
सदा पाप कर्मों में रमता ये तन मन
फांसा मोह में याद तेरी बिसारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
अँधेरी निशा है सहारा न कोई
तुझे ढूंढने में डगर आज खोई
भंवर में फांसी नाथ नैया हमारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
सदन गीध गणिका अजामिल को तारा
बचा ग्राह से नाथ गज को उबारा
सुनी द्रौपदी की तुम्हे जब पुकारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
पड़ा हूँ चरण में यही आस लेकर
उबारोगे हमको भी निज भक्ति देकर
बनूँगा किसी रोज तेरा पुजारी
शरण आ गया हूँ दयामय तुम्हारी
Very good Bhajan
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