जितना किताबें सिसकती हैं
उतना ही मैं भी घुटती हूँ
अपने दर्द को सीने में ज़ज्ब कर लेती हूँ
खरीद लेती हूँ अब भी रेलवे प्लेटफार्म से
और खुश, बहुत खुश होती हूँ किसी से उपहार में पा के
किताबों की दुकानो के शोकेस ललकाते हैं मुझे
और दुकानों के अंदर की किताबें तो विशुद्ध रूप से ललचाती हैं मुझे
लेकिन घर के अंदर, अपने व्यक्तिगत शोकेस में रखी अनपढ़ी किताबें
मुझसे सवाल करतीं हैं ,"क्यों उपेक्षित हैं हम ? क्या गुनाह है हमारा ?
क्यों हमारी बारी नहीं आती है ?
आज लेकिन मैंने एक वादा उनसे किया है और एक खुद से ,
मैं पढूंगी उन्हें ,पहले की सी सहेली बनाऊंगी उन्हें,
खुश हूँ यह फैसला कर के,
कभी नहीं करूंगी उपेक्षा ,
आज यह कसम उठाती हूँ मैं !!
उतना ही मैं भी घुटती हूँ
अपने दर्द को सीने में ज़ज्ब कर लेती हूँ
खरीद लेती हूँ अब भी रेलवे प्लेटफार्म से
और खुश, बहुत खुश होती हूँ किसी से उपहार में पा के
किताबों की दुकानो के शोकेस ललकाते हैं मुझे
और दुकानों के अंदर की किताबें तो विशुद्ध रूप से ललचाती हैं मुझे
लेकिन घर के अंदर, अपने व्यक्तिगत शोकेस में रखी अनपढ़ी किताबें
मुझसे सवाल करतीं हैं ,"क्यों उपेक्षित हैं हम ? क्या गुनाह है हमारा ?
क्यों हमारी बारी नहीं आती है ?
आज लेकिन मैंने एक वादा उनसे किया है और एक खुद से ,
मैं पढूंगी उन्हें ,पहले की सी सहेली बनाऊंगी उन्हें,
खुश हूँ यह फैसला कर के,
कभी नहीं करूंगी उपेक्षा ,
आज यह कसम उठाती हूँ मैं !!
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