ज्योतिष में किसी "विशिष्ट योग" में जन्म लेने वाला जातक भी अपने "पूर्व कर्मों" का "संचित" ही लेकर आता हैं "योग" और "दुर्योग" के रूप में ! कोई भी ग्रह अपने "स्वभाव एवं प्रकृति" के हिसाब से ही परिणाम करता हैं और उसे वही परिणाम करना होता हैं जो उसका "क्षेत्र" होता और वह "अतिक्रमण" कभी नहीं करता हैं ! प्रत्येक ग्रह का "क्षेत्र" आपके कर्म के अनुरूप ही आपकी पत्रिका का हिस्सा बनता हैं ! जैसे प्रश्न कुंडली में चंद्रमा आपके मनोभावों का प्रतिनिधि होकर यह सूचित करता हैं की प्रश्न किस बात या भाव से संबंधित हैं !
किसी भी ग्रह की युति का प्रभाव नियत अंश के दायरे में होने पर उस ग्रह और उन युतियों का असर जातक के जीवन पर देखने को मिलता हैं ! किसी भी युति को फलादेश का आधार बनाने के पहले उसके समग्र को जानना आवश्यक हैं ! जैसे चंद्र जो शीतलता और मन का कारक हैं तब चंद्र जिस ग्रह के साथ युति में होगा उसका परिणाम उस ग्रह के स्वभाव और प्रकृति पर भी निर्भर करेगा ! समझ लीजिये की चंद्र गर किसी पत्रिका में उष्णता कारक मंगल के साथ हैं तब ज्योतिष में इसे "महालक्ष्मी योग" की भी संज्ञा दी गई हैं किंतु जिस प्रकार "ठंडे" और "गरम" पानी को मिला देने दोनों ही अपना "मूल" स्वभाव छोड़कर नयें रूप "कुनकुने" में सबके सामने होता हैं जो ना "ठंडा" ही करता हैं और ना ही "गर्म" वैसे ही दोनों ग्रह अपना नैसर्गिक प्रभाव छोड़कर एक नया रूप धारण कर लेते हैं !
किसी जातक को आत्महत्या करनी हो तब उसके लिए अटूट हिम्मत होना जरुरी हैं और हिम्मत देने और बांध रखने का काम ही मंगल का हैं ! सो यदि ऐसी पत्रिका में मंगल गर चंद्र के साथ हैं तब ऐसा व्यक्ति अपनी बदलती "मनोस्थिति" की वजह से आत्महत्या भी नहीं कर सकता हैं पर क्या उसका "आत्महत्या" ना करना यहाँ बुरा हुआ ? ज्योतिष में योगों का डर दिखाकर अपने हित साधने वाले कम नहीं हैं इस दुनिया में ! ज्ञान की कोई "सीमा" नहीं होती यह "असीमित" होता हैं पर जो सिर्फ किताब में रहकर ज्ञान यात्रा करते हैं उनकी यात्रा का पड़ाव सिर्फ और सिर्फ उस मनोवृत्ति तक सीमित रहता हैं उससे आगे नहीं बढ़ पाता !
यदि इन्हीं योगों को आध्यात्मिक और सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे तब चंद्र की शीतलता और मंगल की उष्णता मिलकर जिस "नवीन" अनुभव का निर्माण करते हैं वह सब प्रचलित सिद्धांतों से आगे बढ़कर भी दुनिया को अपने "विवेक के चश्में" से देखने का साहस कर पाते हैं !
ज्योतिष वेदांग हैं पर वेदों की बात करके हम यह भूल जाते हैं की "चंद्रमा मनसो जातः" का सूत्र यही हैं की "मन" तो बड़ा बावरा हैं जो "खुद" में ही मस्त रहने चाहता हैं पर असली "मस्ती" तो बिना "संबंध" बनाएँ संबंधित हो जाने में हैं क्योंकि इस जगत में उत्पन्न जीव का "रिसीवर" एक ही हैं और हमें "सिग्नल" देने वाला एक ही हैं सो सबके लिए "आनंद" की योजना करने के लिए "किताबों" से बाहर आकर देखना ही पड़ता हैं वरना तो ज्योतिष" की किताबों में लिखा गया प्रत्येक वाक्य "अमृत" हैं पर देने वाले ने "कमी" नहीं की हैं पर लेने वाला ही "अमृत" को "विष" कर दे बांटते-बांटते तब दोष किसे दे........क्योंकि ज्योतिष सिर्फ "योगों" से परिभाषित नहीं होता बल्कि यहाँ प्रत्येक जीवन "योगों" को परिभाषित करता हैं ! तभी तो कहा गया हैं कि "जैसी दृष्टी वैसी सृष्टि"!!!
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