नीलांजना और सुबीर की बारी आने तक रासबिहारी ने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया था कि अंदर आपको बलराम जी को यह हार चढ़ाना है तथा वहाँ से आपको चुनरी मिलेगी जिसे आपको घर जाकर अपने देवस्थान में रखना है । उसने पिछले ग्रूप की ओर संकेत कर के दिखाया भी था जो अंदर से बाहर आ रहीं थीं ( उड़ीसा की महिलायें ) उनमें प्रत्येक के गले में पीली चुनरी थी । उसने दक्षिणा वाली बात बड़े दबे स्वर में ही बताई थी ।
जब सुबीर और नीलांजना अंदर गए , रास बिहारी ने उनके लिए कुर्सियाँ ले जाकर उस पंडित के सामने रख दीं थीं । यह स्थान मूर्तियों के ठीक सामने था किंतु मूर्तियाँ पर्दे में बंद थीं । रास बिहारी कुर्सियाँ रख कर हट गया । अब वह पंडित ने सुबीर की ओर देखते हुए बोलना आरम्भ किया “ मानव तीन अटकों में अटकता है — इनसे निकलने के लिए दान ही काम आता है , आप पच्चीस सौ , इक्यावन सौ , —- सुबीर ने उसे रोकते हुए कहा कि मैं समझ गया । वह चिढ़ गया , उसने क्रोधित होकर “ खररर्र “ से पर्दा खोल दिया उसने नीलांजना को वहीं हार चढ़ाने को कहा , नीलांजना ने हार वहीं रख दिया , तीन मूर्तियाँ थीं मानव आकृति की , कृष्ण बलराम की —
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